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केंद्र सरकार ने एक मसौदा अनुबंध तैयार किया है जिसमें निजी चिकित्सालयों (Private hospitals) के समक्ष प्रस्ताव रखा जाएगा कि वे जिला चिकित्सालयों के साथ मिलकर स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में सहयोग करें। यह प्रस्ताव नीति आयोग (NITI Ayog) का है। इस मसौदे में स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी कुछ शुरुआती मदद की है और इसे राज्य सरकारों के पास भेजा गया है कि वे इसे लेकर अपनी राय व्यक्त करें।
- इस मसौदे में 50 या 100 बिस्तरों वाले अस्पतालों के लिए 30 साल की लीज का प्रावधान है।
- यह लीज दूसरे दर्जे के शहरों में दी जाएगी।
- इन अस्पतालों को जिला अस्पतालों के बेहतर बुनियादी ढांचे का लाभ मिलेगा।
- इसमें रक्त बैंक और एंबुलेंस सेवाएं शामिल हैं।
- इसके अलावा इनको कुछ सार्वजनिक धनराशि भी मिलेगी और सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से सुनिश्चित रेफरल भी।
Health infrastructure in India and Policy?
इस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता है कि देश में स्वास्थ्य सुविधा क्षेत्र की हालत निहायत खराब है। शिशु मृत्यु दर और जीवन संभाव्यता जैसे कुछ संकेतकों के मामले में अहम सुधार होने के बावजूद देश के अधिकांश लोगों को मामूली सेवाओं के लिए बहुत अधिक धनराशि चुकानी पड़ती है।
- देश में निम्न मध्यवर्ग के अचानक गरीबी के भंवर में फंस जाने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार इलाज के ऐसे ही खर्चे हैं जो अचानक उनके सिर पर आ जाते हैं।
- सरकार की वर्ष 2015 की राष्टï्रीय स्वास्थ्य नीति में कहा गया है कि वर्ष 2011-12 के दौरान देश में 5.5 करोड़ लोग केवल चिकित्सा संबंधी खर्च के कारण गरीबी के गहरे भंवर में उलझ गए।
- इसमें कुछ भी चकित करने वाला नहीं है क्योंकि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च का दो तिहाई हिस्सा मरीज की जेब से ही आता है।
- यह दुनिया में सबसे अधिक अनुपातों में से एक है। इतना ही नहीं इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। वर्ष 2004-05 के 15 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2011-12 में 18 फीसदी पर पहुंच गया।
Is this move in right direction?
सरकार ने इस गंभीर संकट से निपटने के लिए जो तरीका चुना है वह कतई गलत है।
- सार्वजनिक खर्च पर स्वास्थ्य सुविधाओं के निजी प्रावधानों ने यही दिखाया है कि यह तरीका कतई कारगर नहीं है।
- इसके पीछे तमाम मजबूत आर्थिक वजह भी हैं।
- इस क्षेत्र में गुणवत्ता सुनिश्चित करने संबंधी निगरानी और नियमन की लागत बहुत ज्यादा है।
- भारत जैसे देश में तो यह समस्या दोहरी बनकर सामने आएगी क्योंकि हमारे यहां प्रशासनिक सुधारों ने राज्यों को इस संबंध में सीमित क्षमता प्रदान की है।
- हमारे यहां मरीजों, चिकित्सकों, अस्पतालों और सरकार के स्तर पर सूचनाओं में इतनी असमानता और इतना बिखराव है कि उनको एकत्रित करना ही खासा मुश्किल है।
- यही वजह है कि किफायती बाजार आधारित हल जुटा पाना आसान नहीं है। सच यह है कि जन स्वास्थ्य की आपूर्ति में सुधार के लिए उपलब्ध फंड के बेहतर से बेहतर इस्तेमाल का अन्य कोई विकल्प है ही नहीं।
Way forward
निजी-सार्वजनिक साझेदारी के लिए चतुराईपूर्ण अनुबंध तैयार करने के प्रयासों से मूल समस्या हल नहीं होगी।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत स्वास्थ्य पर होने वाले सार्वजनिक खर्च के मामले में 191 देशों में 178वें स्थान पर है और जीडीपी का केवल 1.2 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करता है।
- हमारी सरकार थाईलैंड और चीन जैसे देशों की तुलना में स्वास्थ्य पर बहुत कम खर्च करती है।
- अब उसे उन संसाधनों को उपलब्ध बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्वास्थ्य क्षेत्र के लोगों को प्रशिक्षित करने का व्यवहार्य ढांचा निर्मित किया जा सके, बजाय निजी अनुबंधों पर काम करने के। क्योंकि ये अंतत: स्वास्थ्य क्षेत्र की कंपनियों को ही लाभ पहुंचाएंगे