प्रस्तावना :
शासन का हरेक अंग- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने फैसलों के संभावित नतीजों का अंदाजा लगा पाने में बुरी तरह नाकाम रहा है। इन फैसलों के जरिये जिस मकसद को हासिल करने की उम्मीद की जाती है, वे अक्सर वैधानिक रूप से अनुमानित नतीजे के रूप में पेश किए जाते हैं।
context
राष्ट्रगान पर उच्चताम न्यायालय का फैसला हो या सरकार की विमुद्रीकरण की नीती यह इन मामलों में विफल रही है | संसद और विधानसभाओं के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारें भी प्रदत्त विधायन के जरिये कानून बनाने का काम करती हैं
क्यों होता है यह
ये संस्थाए कई बार कानून बनाते समय उसके संभावित नतीजों का अंदाजा लगाने में गलती कर जाते हैं। वास्तव में कानून के पीछे के मकसद को परिभाषित करना अपने आप में मुश्किल कार्य है। वे मूलत: सहज ज्ञान पर भरोसा करते हैं। कानून-निर्माण से पहले विशेषज्ञों के साथ किसी तरह की चर्चा न होने से स्थिति और भी खराब हो जाती है। इस तरह मनचाहे नतीजे का अंदाजा लगा पाना कानून लिखे जाने के समय से ही मुश्किल बना दिया जाता है।
न्यायपालिका और क़ानून : न्यायपालिका भी कभी-कभी कानून बनाने की भूमिका में दिखाई देती है। खास तौर पर जनहित याचिकाओं का निपटारा करते समय न्यायपालिका इस अंदाज में नजर आती है। हालांकि न्यायपालिका इस तरह का कोई फैसला सुनाने के पहले सीमित मात्रा में सलाह लेती है लेकिन मकसद का अंदाजा लगाने में उससे भी कार्यपालिका और विधायिका की तरह ही गलतियां होती हैं।
- जनहित याचिकाओं के माध्यम से कोई भी नागरिक अदालत से यह गुजारिश कर सकता है कि अमुक मामले में विधायिका और कार्यपालिका की तरफ से प्रभावी कदम नहीं उठाए जाने के बाद अब न्यायपालिका को स्पष्ट निर्देश देने चाहिए। न्यायपालिका के परहेज के बावजूद हाल के वर्षों में कई कानून अदालती फैसले से ही सामने आए हैं।
- अदालतों में मामला ले जाने वाले पक्ष उम्मीद करते हैं कि न्यायाधीश स्पष्ट समाधान दें। इसका नतीजा यह होता है कि कभी चुनाव का सामना नहीं करने वाले न्यायाधीश नीतिगत मसलों पर फैसले सुना देते हैं। इस तरह के फैसलों के पहले न्यायपालिका जिन लोगों से सलाह-मशविरा करती भी है वे समस्या के समाधान के लिए इच्छुक लोग ही होते हैं। इसके बावजूद अपनी सीमित क्षमताओं के चलते न्यायाधीशों के लिए मनचाहे नतीजे देने वाले तरीके अपनाना खासा मुश्किल हो जाता है।
क्या है आवश्यक
- विधि निर्माण के लिए जरूरी है कि जो व्यक्ति नीतिया या क़ानून बना रहा हो उसके पास सुव्यवस्थित वैचारिक क्षमता हो।
- समस्या को अच्छी तरह से परिभाषित करने के बाद उसके समाधान के लिए मौजूद सभी विकल्पों की अच्छी तरह से परख करनी होती है और उनमें से सबसे कारगर विकल्प को चुनना होता है।
- तमाम कानूनी साधनों की उनके संभावित लाभ के आधार पर तुलना कर पाना न्यायिक दक्षता का विषय न होकर प्रशासनिक प्रशिक्षण और नीतिगत पसंद का मामला है। वैसे इस मामले में भारतीय शासन के तीनों अंगों की अक्षमता सामने आती है। इससे भी बुरा यह है कि इच्छित परिणामों के आकलन के बगैर उस कानून की प्रभावोत्पादकता का अंदाजा लगा पाना भी संदिग्ध हो जाता है।
- उदाहरांत: दिल्ली और आसपास के इलाके (एनसीआर) में भारी वाहनों के प्रवेश पर पर्यावरण शुल्क लगाने का फैसले | दिल्ली के भीतर वायु प्रदूषण को नियंत्रित करना इस कानून का मकसद था। ऐसी मान्यता थी कि प्रदूषण की एक बड़ी वजह गाडिय़ां ही हैं और उनके प्रवेश पर पर्यावरण शुल्क लगाने से प्रदूषण को कम किया जा सकता है। यह कानून पूरी तरह से अदालती फैसले से वजूद में आया था जिसे बाद में सरकार ने औपचारिक शक्ल दी। लेकिन इसके बाद भी दिल्ली को इस साल गहरी धुंध का सामना करना पड़ा है। खेतों में पुआल जलाने से लेकर दीवाली पर पटाखे जलाने से हुए प्रदूषण को भी इसकी वजह बताया गया। लेकिन किसी ने भी यह सवाल नहीं उठाया कि गाडिय़ों पर पर्यावरण शुल्क लगने के बाद भी दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर कम क्यों नहीं हुआ?
- इसी तरह फांसी की सजा को लेकर विधायिका में बना कानून भी अपना असली मकसद हासिल करने में नाकाम रहा है। दिसंबर 2012 में निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद दोषियों को मौत की सजा देने को लेकर देश भर में खूब प्रदर्शन हुए थे। सरकार ने भी लोगों की नया कानून बनाने की मांग तो मान ली लेकिन मौत की सजा वाले पहलू पर थोड़ा पीछे हट गई। संसद में बने नए कानून में यौन हिंसा की परिभाषा बदल दी गई और सजा के तौर पर मौत तक देने का नियम बना दिया गया। लेकिन उसके कुछ महीनों बाद ही मुंबई में शक्ति मिल गैंगरेप केस हो गया लेकिन नए कानून की प्रभावोत्पादकता को लेकर सवाल नहीं उठाए गए।