देश में हर साल करीब सवा लाख लोग अलग-अलग कारणों से आत्महत्या करने के लिए मजबूर होते हैं. नये आंकड़े बताते हैं कि आत्महत्या करनेवालों में नौजवानों की तादाद लगातार बढ़ी है.
- 2014 में आत्महत्या करनेवालों में 14 से 30 साल की उम्र के लोगों की संख्या करीब 40 फीसदी थी. अगर आत्महत्या की कोशिश को कानूनन जुर्म माना जाये, तो कहा जा सकता है कि आत्महत्या में विफल रहने पर नौजवानों की यह बड़ी तादाद धारा 309 के तहत अधिकतम एक साल के लिए जेल जाती.
- यह कानूनी प्रावधान दर्द से कराहते किसी व्यक्ति पर और ज्यादा कोड़े बरसाने जैसा था. आत्महत्या के प्रसंग में कानून की इसी विसंगति को दूर करने के लिए देश की विधायिका ने सराहनीय कदम उठाया है.
- राज्यसभा में पारित मेंटल हेल्थकेयर बिल के अंतर्गत विधान किया गया है कि आत्महत्या की कोशिश को आपराधिक नहीं माना जायेगा, बल्कि ऐसे व्यक्ति को मानसिक बीमारी से ग्रस्त मान कर उसके उपचार की व्यवस्था की जायेगी. जाहिर है, इस बिल के पारित होने से आत्महत्या के बारे में नीतिगत स्तर पर कहीं ज्यादा संवेदनशील तरीके से सोचने में मदद मिलेगी.
- यह सच है कि आत्महत्या करनेवाला अपनी जान लेने की कोशिश खुद ही करता है और बहुधा अपनी तरफ से यह लिख भी जाता है कि उसकी मौत का जिम्मेवार किसी और को न ठहराया जाये, लेकिन आत्महत्या करनेवाले व्यक्ति के तात्कालिक जीवन-परिवेश के तथ्य यह संकेत करने के लिए काफी होते हैं कि जान देने का फैसला चरम निराशा और असहायता की हालत में लिया गया.
- ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि हर आत्महत्या में एक अनकही शिकायत भी दर्ज होती है कि देश और समाज जान देनेवाले व्यक्ति के लिए अर्थपूर्ण एवं मानवीय गरिमा के अनुकूल जीवन जीने के हालात तैयार करने में असफल रहा. हालांकि, शायद यह मानकर कि व्यक्ति के जीवन पर सिर्फ उसका ही अधिकार नहीं होता, बल्कि उस पर समाज का भी कुछ नैतिक अधिकार होता है या होना चाहिए, भारतीय कानून में आत्महत्या के प्रयास को आपराधिक ठहराया गया था. लेकिन, ऐसे कानूनी प्रावधान से एक विचित्र स्थिति जन्म लेती है.
इससे आत्महत्या करनेवाले पर यह दबाव होता था कि वह जान देने के अपने प्रयास में यदि विफल रहा तो उसकी जगह समाज में नहीं, बल्कि जेल में होगी. ऐसे में नये बिल का पारित होना देश में मनोस्वास्थ्य की समझ के लिहाज से निश्चित ही एक प्रगतिशील कदम कहा जायेगा.