#The_Telegraph का संपादकीय
सन्दर्भ :- खेती पर छाए इस संकट को दूर करने के लिए सिर्फ नीतियों को समावेशी बनाने से काम नहीं चलेगा.
- आंकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं. हाल में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने जो आंकड़े जारी किए हैं वे बताते हैं कि देश में किसानों की खुदकुशी के मामले में कहानी जस की तस है.
- 2015 में उससे पिछले साल की तुलना में किसानों की आत्महत्या के मामलों में 41.7 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है. महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश इस मामले में सबसे आगे रहे.
- इस कहानी में सबसे खास बात यह है कि जिन करीब तीन हजार किसानों के बारे में यह अनुमान लगाया गया है कि उन्होंने कर्ज और दिवालिया होने के चलते अपनी जान ली उनमें से 2474 ने यह कर्ज बैंकों या लघु ऋण संस्थाओं से लिया था.
- यह जानकारी कुछ बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ती है. माना जाता है कि कर्ज से लदे किसानों के खुदकुशी करने के पीछे की एक बड़ी वजह स्थानीय सूदखोर होते हैं जो ऊंची दर से ब्याज वसूलते हैं.
- उधर, पंजीकृत संस्थाओं के बारे में धारणा है कि वे कर्ज के सुरक्षित स्रोत होते हैं. लेकिन अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ये आंकड़े बताते हैं कि ऐसा नहीं है.
- बताया जाता है कि देश में 27 फीसदी गांव ऐसे हैं जिनके पांच किलोमीटर के दायरे में कोई न कोई बैंक है. लेकिन ऐसे बैंकों तक सरलता से पहुंच रखने वाले भी मुश्किलों से जूझ रहे हैं.
- इसकी वजह यह हो सकती है कि सरकार बैंकों को खेती से जुड़े कर्ज के मामले में कड़े लक्ष्य देती है लेकिन इसके साथ वह कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कदम नहीं उठाती. ज्यादा से ज्यादा किसानों को कर्ज मिले, इस कवायद का लेना-देना राजनीतिक प्राथमिकताओं से भी होता है.
- लेकिन इस तरह की नीति के चलते बैंकों पर डूबने की आशंका वाले कर्ज का बोझ तो बढ़ता ही है, कुदरत और बाजार के मारे किसानों के बारे में यह धारणा भी बनती है कि कर्ज के मामले में उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता.
- यह दुर्भाग्यपूर्ण है, खासकर यह देखते हुए कि भारत में सबसे बड़े डिफॉल्टर बड़े कारोबारी हैं.
- जरूरत इस बात की है कि कृषि क्षेत्र में दिए जा रहे कर्ज की प्रक्रियाओं में सुधार किए जाएं. यह कर्ज जरूरतमंदों यानी छोटे और उपेक्षित किसानों तक पहुंचना चाहिए क्योंकि आत्महत्या करने वाले किसानों में 72 फीसदी से भी ज्यादा ऐसे हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन थी.
- इसके अलावा कर्ज जारी करने की प्रक्रिया का समन्वय खेती के कैलेंडर के साथ हो और इसमें कर्जदार की जरूरतों को ध्यान में रखा जाए. दीर्घावधि ऋण को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए.
- साथ ही इसकी वसूली की प्रक्रिया कड़ी जरूर हो लेकिन इसमें कर्जदार की मजबूरियों का भी ध्यान रखा जाए.
- लेकिन सिर्फ नीतियों को आर्थिक रूप से समावेशी बनाने या फिर कर्ज प्रक्रिया में सुधार से ही मसले का पूरा हल नहीं होगा.
- रोजगार और आय को बढ़ाने के लिए पहले से ज्यादा राजनीतिक इच्छाशक्ति भी दिखानी होगी. लंबे समय से चल रही यह बीमारी सिर्फ कर्जमाफी या फिर मुफ्त बिजली जैसी घोषणाओं से ठीक नहीं होगी.