वन्यजीवों पर मंडराता संकट

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हाल ही में उत्तर प्रदेश के अमेठी में एसटीएफ ने पुलिस व वन विभाग की टीम के साथ मिल कर एक ट्रक से तस्करी के लिए जा रहे 4.40 टन कछुओं को पकड़ा। देश में अब तक कछुओं की तस्करी का यह सबसे बड़ा मामला बताया जा रहा है। बरामद कछुओं की कीमत दो करोड़ से भी अधिक बताई जा रही है। दरअसल, कछुओं की लगभग दो सौ प्रजातियां होती हैं लेकिन हमारे देश में पचपन प्रजातियां ही पाई जाती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज वन्यजीवों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

  • डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट के अनुसार 2020 तक वन्यजीवों का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा विलुप्त हो जाएगा।
  • रिपोर्ट के अनुसार भारत में 41 फीसद स्तनधारियों, 46 फीसद सरीसृपों, 57 फीसद उभयचरों और नदी-तालाबों की 70 फीसद मछलियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
  •  भारत समेत संपूर्ण विश्व में वन्यजीवों की संख्या तेजी से घट रही है।
  • बीते चालीस सालों में पशु-पक्षियों की संख्या घट कर एक तिहाई रह गई। इस दौरान पेड़-पौधों की विभिन्न प्रजातियां भी आश्चर्यजनक रूप से कम हुर्इं। पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियां तो विलुप्त होने के कगार पर हैं। दरअसल, समृद्ध वन्य-जीवन हमारे पर्यावरण को पोषकता तो प्रदान करता ही है, हमारे जीवन पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है। विडंबना यह है कि वन्यजीवों के संकट को देखते हुए भी हम अपनी जीवन शैली को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं।
  • कुछ समय पूर्व भी वन्य जीवन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट में भी बताया गया था कि पिछले चार दशकों में जंगली जानवरों की संख्या तीस फीसद घट गई।
  • कुछ जगहों पर तो यह संख्या साठ फीसद घटी। इस अवधि के दौरान मीठे पानी में रहने वाले पक्षियों, जानवरों और मछलियों की संख्या में सत्तर फीसद गिरावट दर्ज की गई।
  • विभिन्न कारणों से डाल्फिन, बाघ और दरियाई घोड़ों की संख्या भी आश्यर्चजनक रूप से घटी। 1980 से अब तक एशिया में बाघों की संख्या सत्तर फीसद कम हो चुकी है।
  • विभिन्न पक्षियों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पक्षी हमारे देश की समद्ध जैव-विविधता की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। गौरतलब है कि दुनिया में पक्षियों की लगभग 9900 प्रजातियां ज्ञात है । एक अनुमान के अनुसार अगले सौ सालों में पक्षियों की लगभग 1100 प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। भारत में पक्षियों की लगभग 1250 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से लगभग 85 प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।
  • तोते पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गौरतलब है कि विश्व में तोते की लगभग 330 प्रजातियां ज्ञात हैं। अगले सौ सालों में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने का अनुमान है।
  • भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है उनमें उपरोक्त पक्षियों के अतिरिक्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, गुलाबी सिर वाली बत्तख, हिमालयन बटेर, साइबेरियाई सारस, बंगाल फ्लेरिकन और उल्लू आदि प्रमुख हैं।

कारण :

  • दरअसल, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक आवास में ही सुरक्षित महसूस करते हैं। प्राकृतिक आवास में ही इनकी जैविक क्रियाओं के बीच एक संतुलन बना रहता है। विभिन्न कारणों से पक्षियों का प्राकृतिक आवास उजड़ता जा रहा है।
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  • बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण वृक्ष लगातार कम होते जा रहे हैं। बाग-बगीचे उजाड़ कर उन जगहों पर खेती-बाड़ी की जा रही है। जलीय पक्षियों का प्राकृतिक आवास भी सुरक्षित नहीं बचा है।
  • एक ओर पक्षी मानवीय लोभ की भेंट चढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर, जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है।
  • तमाम नियम-कानूनों के बावजूद पक्षियों का शिकार व अवैध व्यापार किया जा रहा है। लोग सजावट, मनोरंजन तथा घर की शान बढ़ाने के लिए तोते व रंग-बिरंगी गोरैया जैसे पक्षियों को पिंजरों में कैद रखते हैं
  • पक्षी विभिन्न रसायनों व जहरीले पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ भोजन या फिर त्वचा के माध्यम से पक्षियों के अंदर पहुंच कर उनकी मौत का कारण बनते हैं।
  • डीडीटी, विभिन्न कीटनाशक और खरपतवार खत्म करने वाले रसायन पक्षियों के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं।
  • मोर जैसे पक्षी कीटनाशकों की वजह से काल के गाल में समा रहे हैं।
  • गिद्ध मरे हुए पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण साफ रखने में मदद करता है। पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा के अंश मरने के बाद भी पशुओं के शरीर में रह जाते हैं। जब इन मरे हुए पशुओं को गिद्ध खाते हैं तो यह दवा गिद्धों के शरीर में पहुंच कर उनकी मौत का कारण बनती है।
  • Exotic species & Biodiversity : इस दौर में हम अपने बगीचों में सुंदरता बढ़ाने के लिए विदेशी या फिर ऐसे पौधों को ज्यादा उगाते हैं जो प्राकृतिक रूप से उस जगह पर नहीं उगते हैं। ऐसे पौधे स्थानीय पौधों की तुलना में उस जगह पर रहने वाले कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते हैं। साथ ही इन पौधों को ज्यादा रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की आवश्यकता होती हैं। ये रसायन वातावरण को प्रदूषित कर लाभकारी सूक्ष्मजीवों और कीट-पतंगों को भी खत्म कर देते हैं।
     

भाषा और संस्कृति पर प्रभाव

वन्य जीवन पर गहराता संकट पर्यावरण के साथ-साथ भाषा और संस्कृति को भी नष्ट कर रहा है। एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि जैव-विविधता की हानि दुनिया में भाषाओं और संस्कृतियों के नष्ट होने के लिए जिम्मेवार है। अमेरिका की पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि:

  • पृथ्वी के जैव-विविधताओं वाले उच्च क्षेत्रों में उच्च भाषाई विविधता भी होती है।
  • यहां तक कि विश्व की सत्तर प्रतिशत भाषाएं उच्च जैव विविधता वाले स्थलों पर पाई जाती हैं।
  • जैव-विविधता में ह्रास भाषा और संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण पर जिस तरह से प्रभाव डाल रहा है वह यह संकेत देने के लिए काफी है कि भविष्य में हमें अनेक खतरों का सामना करना पड़ेगा।

आवश्यकता किस बात की

  • आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आसपास स्थानीय पौधों को ज्यादा उगाएं। ऐसे पौधों को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है और वे स्थानीय कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी सफल रहते हैं।
  •  जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर तथा हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों के संरक्षण को अपेक्षित महत्त्व नहीं मिल पाता है। वृक्षों की संख्या में वृद्धि, जैविक खेती को प्रोत्साहित तथा माइक्रोवेव प्रदूषण को कम करके काफी हद तक पक्षियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है।
  • पक्षियों के संरक्षण के लिए सरकार को भी कुछ ठोस योजनाएं बनानी होंगी। हमें समझना होगा कि जीवों पर मंडराता यह खतरा भविष्य में हमारे अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा सकता है।

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