पुलिस का चेहरा बदलने की चुनौती

#Editorial_Dianik_Jagaran

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विकासशील समाज अध्ययन पीठ-सीएसडीएस की अर्धवार्षिक पत्रिका ‘प्रतिमान’ के हालिया अंक में सांतना खनिकर ने पुलिस पर केंद्रित एक लेख लिखा है। उनका निष्कर्ष है कि पुलिस वाले कैसे संप्रभुता के एक विशिष्ट और विकेंद्रित रूप में दुष्ट एवं छुटभैये की भूमिका ग्रहण कर लेते हैं, किसी प्रक्रिया का पालन किए बिना। थाना स्तर के अधिकारी अपनी मर्जी के मुताबिक कानून को धता बताकर खुद ही तय कर लेते हैं कि किसी खास स्थिति में किसी कानून का पालन किया जाए या नहीं? लेखिका पुलिस पर किए गए अपने इस विचारोत्तेजक अध्ययन में प्रसिद्ध अमेरिकी नारीवादी चिंतक जूडिथ बटलर द्वारा 9/11 के बाद उत्पन्न हालात में लिखी गई पुस्तक ‘प्रिकेरियस लाइफ’ का उल्लेख करती हैं और पुलिस को राज्य के छुटभैये संप्रभु के रूप में मानकर यह प्रस्तावित करती हैं कि छुटभैये ही फैसला करते हैं कि अपराध क्या है?

What is wrong in this  one sided view:

यह लेख हाशियाग्रस्त सामाजिक समुदायों और समूहों से पुलिस के जटिल और रोजमर्रा के संबंधों की पड़ताल तो करता है, लेकिन पुलिस के जीवन का एकांगी चित्र ही खींचता है। यह उन परिस्थितियों की तह में नहीं जाता जो एक संगठन के रूप में पुलिस को जाति-शुद्धता और पितृसत्ता के सामुदायिक तर्कशास्त्र के अंतर्गत काम करने को बाध्य करते हैं।

Is Police not amenable to change

यही पुलिस की विडंबना है कि उस पर किए जाने वाले अध्ययन उसे राज्य की दुष्ट संप्रभुता का संवाहक मानकर कभी न सुधरने लायक संगठन मान लेते हैं। मानो खुद पुलिस यह ठान कर बैठी हो कि उसे सुधरना नहीं है। ऐसे अध्ययन उस प्रणाली की छानबीन नहीं करते जहां विभिन्न प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक शक्तियां पुलिस पर अपने आधिपत्य के दावे के लिए संघर्षरत रहती हैं।

 

Ø  पुलिस एक ओर राज्य की कानून प्रवर्तन की प्रमुख संस्था की भूमिका निभाती है वहीं दूसरी ओर राज्य के दंडकारी स्वरूप के प्रतिनिधि रूप में हमेशा अलोकप्रिय बने रहने के लिए अभिशप्त रहती है।

Ø  यह त्रिशंकु की विवशता का रूप ले लेती है जहां न उसे स्वर्ग में घुसने दिया जाता है न धरती पर लौटने दिया जाता है।

Ø  इस बात को किसी भी तर्क से नकारा नहीं जा सकता कि वर्तमान में पुलिस का जो ढांचा है उसमें मूलभूत बदलाव की दरकार है।

Ø   पुलिस प्रणाली में होने वाले ऊपरी और स्थूल बदलाव समाज के बदलने की गति से कदम ताल करते हुए नहीं दिखते।

 एक संगठन के रूप में पुलिस के जिस परिवेश में काम करने की बात कही गई है उसका कोई ठोस वैचारिक प्रति-उत्तर हमारे आसपास सृजित होता हुआ नहीं दिखता। यही कारण है कि अरबों रुपये के आधुनिकीकरण के बजट के बाद भी पुलिस वैचारिक रूप से आधुनिक नहीं दिखती। पितृसत्ता का यह निर्मम रूप उसकी मूल चेतना में धंसा पड़ा है। इसलिए कहीं कोई दारोगा किसी पीड़ित महिला शिकायतकर्ता से थाने में सफाई कराता हुआ नजर आता है तो कहीं किसी असहाय व्यक्ति से चंपी कराता हुआ। उसके जेहन को बदलने में पुलिस का बजट बेअसर है। बावजूद इसके पुलिस को अपरिवर्तनीय इकाई मान लेना भी एक खतरनाक दृष्टिकोण है।

 

 दरअसल पुलिस को जिन दो सुधारों की अविलंब आवश्यकता है उनमे:

v  शहरीकरण के दबाव में उत्पन्न पेचीदगियों को देखते हुए पुलिस ढांचे में व्यापक बदलाव।

v  जरूरी सुधार है, पुलिस के लिए प्रशिक्षण के नए दर्शन का निर्माण।

 

What is required:

पुलिस केवल डंडे के जोर से आबादी पर नियंत्रण रखने वाली संस्था नहीं बनी रह सकती। उसे उत्तरदायित्व के नए कलेवर, जवाबदेही के नए तरीकों को ढूंढ़ना ही पड़ेगा। तभी वह राज्य के दंडात्मक रूप के प्रतिनिधि होने की छवि से दूर हट सकेगी और तभी वह दुष्ट संप्रभु होने के चुभने वाले आरोप का जवाब तैयार कर पाएगी।

Is technology a solution:

कुछ समय पहले अमेरिका के कई शहरों में पुलिस की गोली से अश्वेतों की मौतों के बाद न्यूयॉर्क पुलिस विभाग द्वारा पुलिस कर्मियों की वर्दी को कैमरों से लैस करने का प्रयोग शुरू किया गया। यह तकनीक आधारित जवाबदेही का आरंभ है, जिसका इस्तेमाल हमारे यहां भी किया जा सकता है। कानून एवं व्यवस्था की गंभीर हालत में जैसा अभी मंदसौर में हुआ, यह पुलिस की जवाबदेही को सही तरह सुनिश्चित कर सकेगा, लेकिन तकनीकी जवाबदेही उस हालत में निर्रथक साबित होगी जिसमें पुलिस का बुनियादी जेहन ही बदलने को तैयार न हो। इसी स्तर पर पुलिस में प्रशिक्षण के नए दर्शन को तैयार करने की जरूरत पैदा होती है।

Need to change attitude:

पुलिस के पुराने और अर्ध-सामंती जेहन पर नए विचारों की करारी चोट पड़े और वह भी बार-बार तभी पुलिस की पुरानी रंगत से नया चेहरा हासिल किया जा सकेगा। प्रशिक्षण के इस नए दर्शन में लैंगिक संवेदनशीलता, मानवाधिकार, बल-प्रयोग के गैर-घातक तरीकों के प्रयोग में पेशेवर दक्षता, दंड और शक्ति के प्रयोग की बदली हुई परिभाषाएं सम्मिलित हों। सब-इंस्पेक्टर और सिपाही के स्तर पर हर हाल में मध्यावधि रिफ्रेशर कोर्स हों जिन्हें करना अनिवार्य हो, भले ही उस वक्त वह बड़े शहर के बड़े थाने में ही तैनात क्यों न हो। जिंदगी की व्यस्तता में थोड़ा खाली समय मिलना किसी की भी एक मूलभूत जरूरत है। अवकाश मनुष्य की सृजनशीलता को उर्वर रखता है। पुलिस को अलोकप्रिय संप्रभु में बदल डालने के लिए वे हालात कितने जिम्मेदार हैं जो एक पुलिसकर्मी को मशीन में बदल दे रहे हैं। इन सबकी एक गहन जांच-पड़ताल अपेक्षित है। जूडिथ बटलर के अनुसार शासकीयता बिसरित या फैले हुए रूप में काम करती है। इस तरह वह जनसंख्या का प्रबंधन और उस पर नियंत्रण करती है। नियंत्रण करने में अवैध बल प्रयोग राज्य की किसी भी इकाई के प्रति आम जन में क्रोध और अविश्वास पैदा कर देती है। अब सब कुछ तेजी से बदल रहा है। आज हर दिन सभी पर अपडेटेड रहने का दबाव है। पुलिस अपवाद नहीं रह सकती है। उसे भी बदलना है। सबके साथ नहीं। सबसे पहले बदलना है। यही उसकी चुनौती है। हम उस समय से बहुत आगे आ गए हैं जहां दंड अपने अतिवादी रूप में भी स्वीकार्य था। बदले समय में दंड प्रयोग सबसे अंतिम विकल्पों में शामिल हो गया है और वह भी तब जब उसका औचित्य स्थापित किया जा सके। यह होना भी चाहिए। यही सभ्य समाज की पहचान है। 

 

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