विचाराधीन कैदियों की संख्या: रिहाई प्रक्रिया तेज करना जरूरी

देश की जेलों में बंद क्षमता से अधिक कैदियों की संख्या केन्द्र और राज्य सरकारों के समक्ष बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। इनमें विचाराधीन कैदियों की संख्या बहुत अधिक है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए केन्द्र सरकार विभिन्न अपराधों के आरोपों में लंबे समय से जेल में बंद उन विचाराधीन कैदियों को रिहा करना चाहती है जो निर्धारित सज़ा की आधे से अधिक अवधि जेल में गुजार चुके हैं।

एक नजर आंकड़ो पर

  • एक अनुमान के अनुसार इस समय देश की 1401 जेलों में 67 प्रतिशत से अधिक कैदी विचाराधीन हैं।
  •  इन जेलों में 134 केन्द्रीय जेल, 379 जिला कारागार, 741 उपकारागार, 18 महिला जेल, 63 खुली जेल और 43 विशेष जेल भी शामिल हैं।
  • राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2015 में देश की जेलों की क्षमता 3,66,781 थी लेकिन इनमें 4,19,624 कैदी बंद थे। इन कैदियों में 2,82,076 विचाराधीन कैदी थे।
  •  इनमें से 13.35 फीसदी विचाराधीन कैदी एक से दो वर्ष, 6.34 फीसदी दो से तीन साल, 4.05 फीसदी तीन से पांच साल और 1.27 फीसदी पांच साल से अधिक समय से जेलों में बंद हैं। इन विचाराधीन कैदियों में 80,528 निरक्षर और 1,19,082 दसवीं तक ही पढ़े हैं जबकि इनमें 5225 पोस्ट ग्रेजुएट और 16365 स्नातक स्तर तक शिक्षित हैं।

Fallout of this

  • क्षमता से अधिक कैदी जेलों में बंद होने की वजह से निश्चित ही उन्हें अमानवीय स्थिति में रहना पड़ता होगा।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-क के अंतर्गत यदि कोई कैदी अपने उस कथित अपराध के लिये कानून में निर्धारित सजा की आधी अवधि पूरी कर चुका हो तो उसे जमानत या बगैर मुचलके के रिहा किया जा सकता है। लेकिन इसका लाभ उन विचाराधीन कैदियों को नहीं मिल सकता, जिनके खिलाफ ऐसे अपराध में लिप्त होने के आरोप हैं, जिनमें मौत की सजा का प्रावधान है या फिर कोई अन्य स्पष्ट प्रावधान किया गया है।

  • मानवाधिकार संगठन वैसे तो विचाराधीन कैदियों की स्थिति को लेकर लगातार आवाज उठाते रहे हैं परंतु 2010 में संप्रग सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के अभियान के तहत दो लाख से अधिक ऐसे विचाराधीन कैदियों की रिहाई हुई थी जो सालों से जेल में बंद थे। इनमें बडी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी तो अधिकतम सजा से भी ज्यादा समय जेल में गुजार चुके थे। इनमें ऐसे कैदी भी थे जो जमानत मिलने के बावजूद जमानती की व्यवस्था नहीं कर पाने के कारण रिहा नहीं हो सके थे।
  • इसी बीच, सितंबर 2014 में उच्चतम न्यायालय ने अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का संज्ञान लिया। न्यायालय ने महसूस किया कि 35 सालों में तमाम निर्देशों के बावजूद सरकारें जेलों में सुधार की ओर ध्यान नहीं दे रही हैं।
  • क्षमता से अधिक कैदी बंद होने की वजह से जेलों में अकसर हिंसा की घटनायें भी सामने आने लगी हैं।
  • न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की और कहा भी कि ऐसा लगता है कि जेलों में बंद व्यक्तियों की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ है और एक बार फिर न्यायालय को कैदियों की स्थिति और जेलों में सुधार की ओर ध्यान देना पड़ेगा।
  • स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों की समीक्षा के लिये गठित जिला स्तर की समिति को हर तीन महीने में बैठक करने और इनमें जिला विधिक सेवा समिति के सचिव को शामिल होने का निर्देश भी दिया था।
  • न्यायालय ने कहा था कि विचाराधीन कैदियों को यथाशीघ्र रिहा करने पर गौर किया जाये। न्यायालय चाहता था कि पहली बार किसी अपराध के आरोप में गिरफ्तार व्यक्ति के संदर्भ में अपराधी परिवीक्षा कानून के अमल पर भी गौर किया जाये ताकि ऐसे व्यक्तियों को सुधरने और समाज में फिर से पुनर्वास का अवसर मिल सके।
  • केन्द्र सरकार ने भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-क के तहत सभी राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखकर जिला स्तर पर समीक्षा समिति गठित करने का आग्रह किया था ताकि विचाराधीन कैदियों की रिहाई की दिशा में कदम उठाये जा सकें। ऐसा लगता है कि बात आगे नहीं बढ़ सकी और इसी वजह से कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद को एक बार नये सिरे से यह कवायद शुरू करनी पडी है।

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