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चेन्नई के मरीना बीच पर बैलों से जुड़े पारंपरिक खेल जल्लीकट्टू पर लगे प्रतिबंध को हटाने को लेकर विरोध प्रदर्शन चला। अब यह शांत हो चुका है|
क्या प्रतीकात्मक रीतियों के साथ हमें बने रहना चाहिए
इसमें दोराय नहीं है कि पारंपरिक संस्कृतियों में पर्यावरण को लेकर संवेदना का भाव रहा है। लोगों ने प्रकृति के साथ जीना सीखा और उसके संसाधनों को बढ़ाने और जरूरत के वक्त उसे तार्किक ढंग से खर्च करना भी सीखा। यह स्थायित्व भरा उपयोग हमारी परंपराओं, रीति रिवाजों, व्यवहार और मान्यताओं के सहारे हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया। समय बदलता है और उसके साथ ही समाज का रुख और उसकी संवेदनाएं भी बदलती हैं। आखिर परंपराएं कैसे जीवित रहती हैं? क्या उनको बरकरार रहना चाहिए? या फिर हमारा ध्यान उन वजहों को तलाश करने पर लगना चाहिए कि हमने क्या और क्यों किया। हमें उन रीतियों पर ध्यान नहीं देना चाहिए जो अब केवल प्रतीकात्मक बन कर रह गई हैं।
इस पर प्रतिबंध क्यों :
पूरा खेल इस कौशल पर आधारित है कि बैल को काबू में करके उसकी सींग में से पैसे कैसे खोले जाते हैं। यही वजह है कि पशु अधिकार कार्यकर्ता इसे खेल करार देते हैं। उन्होंने इस मसले को केंद्र सरकार के समक्ष उठाया और वर्ष 2011 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री ने बैल को उस सूची में शामिल करा दिया जिसमें शामिल जानवरों का इस्तेमाल प्रशिक्षण या प्रदर्शनी के लिए नहीं किया जा सकता। यह काम पशुओं के साथ क्रूरता अधिनियम 1960 के अधीन किया गया।
तकरार और जल्लीकट्टू
- सरकार ने बैल का नाम इस सूची से बाहर करना चाहा लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप किया। मई 2014 में अदालत ने कहा कि जल्लीकट्टू, बैलों की दौड़ और ऐसी तमाम अन्य गतिविधियां जानवरों के प्रति क्रूरता का प्रतीक हैं। उसने इस पर प्रतिबंध जारी रखा।
- तब से हर पोंगल (इसी त्योहार के दौरान जल्लीकट्टू का आयोजन किया जाता है) पर इसे लेकर असहमति के सुर तेज होते गए।
- केंद्र सरकार ने उक्त अधिनियम में बदलाव का वादा करके इस आग को जिंदा रखा। इस वर्ष हजारों युवाओं ने पूरा सोशल मीडिया इससे संबंधित संदेशों से पाट दिया और वे चेन्नई के मरीना बीच और तमिलनाडु के अन्य शहरों में बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आए।
- इसने राज्य सरकार को कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। रातोरात एक अध्यादेश पारित किया गया और उसे कानून बनाकर यह सुनिश्चित किया गया कि यह ग्रामीण खेल चलता रहे।
जल्लीकट्टू के लिए तर्क
जल्लीकट्टू की परंपरा तमिल समाज में है। उनका कहना है कि :
- यह स्पेन में होने वाली सांडों की लड़ाई से एकदम अलग है।
- जल्लीकट्टू में बैलों को मारा नहीं जाता है बल्कि उनकी सींग में बंधे सोने और पैसे को खोलते हुए उनके साथ खेला जाता है।
- अन्य गतिविधियां जानवरों के प्रति क्रूरता का प्रतीक हैं। उसने इस पर प्रतिबंध जारी रखा
सरकार ने भले ही इस पर प्रतिबन्ध हटा दिया हो एक प्रश्न तो फिर भी बरकरार रहा है
क्या यह परंपरा हमारे पर्यावास के लिहाज से अहम है या फिर यह महज एक खूनी खेल है?
- इसके हिमायती कहते हैं कि यह केवल राज्य के पारंपरिक कंगायम प्रजाति के बैलों को बचाने का तरीका है।
- इस खेल के जरिये बैल की शक्ति को प्रदर्शित किया जाता है और इसका चयन संरक्षण के लिए होता है।
- अगर इस खेल पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो इस प्रजाति के बैल पालने का ही कोई मतलब नहीं रह जाएगा। ऐसे में इनको मारा जाएगा और बैल और गाय का बिगड़ा हुआ अनुपात और अधिक बिगडऩे लगेगा।
पर प्रश्न है की
- सरकार की दलील थी की इस खेल को जारी रखने के लिए दोनों सरकारों ने केवल संस्कृति और परंपरा का ही हवाला दिया है। कहा यह गया है कि क्रूरता इस खेल का हिस्सा नहीं है और उसे विनियमित और नियंत्रित किया जा सकता है।
- इसके हिमायतियों ने इस खेल से जुड़े पर्यावासीय पहलुओं का उल्लेख कभी नहीं किया क्योंकि उसके समर्थन में दलील देनी होगी। तथ्यों की बात करें तो आज देश भर में देसी प्रजातियों के पालतू पशु खत्म होने के कगार पर हैं।
- इनके बचाव, संरक्षण और इनकी नस्ल तैयार करने के पक्ष में तमाम दलीले हैं। वे स्थानीय हैं और उनमें प्रतिकूल पर्यावास को झेलने की क्षमता है।
- आज देश के पारंपरिक नस्ल वाले पशु दूसरे देशों में समृद्घि की वजह बन रहे हैं। अफ्रीका में साहीवाल नस्ल तैयार हो रही है तो ब्राजील में नेलोर। यहां तक कि अमेरिका में बीफ के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पशु भारतीय ब्राह्मïण नस्ल के हैं। लेकिन हमने जर्सी और होल्स्टीन फ्रीजियन जैसी विदेशी नस्लों को पालना शुरू कर दिया है।
- सन 2012 में जारी 19वीं पालतु पशु गणना के आंकड़े बताते हैं कि देसी पशु कम हो रहे हैं। इसके मुताबिक वर्ष 2007 से 2012 के बीच इनमें 19 फीसदी की गिरावट आई जबकि विदेशी नस्ल के पशुओं में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
- सन 2003 की जनगणना से तुलना करें तो देसी दुधारू पशुओं में 65 फीसदी गिरावट दर्ज की गई है। तमिलनाडु में भी हालात अलग नहीं हैं।
ऐसे में यह कहना सही होगा कि जल्लीकट्टू से देसी नस्लों के बचाव की दलील के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं नजर आता। अगर परंपरा को सही मायनों में जिंदा रखना है तो इसके हिमायतियों को अपनी कही बातों पर भी अमल करना चाहिए। देसी नस्ल के पशुओं को बचाए रखने और इनकी नस्ल को आगे बढ़ाने के लिए अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। ये देश की पशु अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी अहम है। असली बात यही है।