चुनाव सुधार : चुनावी शुचिता को बनाये रखने के लिए चुनावी खर्चों और प्रलोभनों पर अंकुश जरुरी

- चुनाव का मतलब है मतदाता के विश्वासपात्र राजनीतिक दल या उम्मीदवार को शासन-प्रशासन की बागडोर सौंपना।

- लेकिन दुर्भाग्य से चुनाव ऐसे अवसर में तबदील हो गया है जब तमाम प्रत्याशी या राजनीतिक दल भोले-मासूम मतदाता को खरीदने या ठगने के लिए मैदान में आ डटते हैं। 
- वोट झटकने के लिए झूठे सपने दिखाने वाले तरह-तरह के वादों को भी शामिल कर लें तो प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या चुनाव मतदाताओं के विश्वास के साथ छल-कपट का जरिया बनकर रह गए हैं? चुनाव और राजनीति में सुधारों के पक्षधर लोगों की यह मांग इसीलिए समर्थन करने योग्य है कि प्रचार के समय किए जाने वाले वादों को रिश्वत के तौर पर ही लिया जाना चाहिए। सही है, जो भरोसा दिलाकर आप चुनाव जीते हैं, उन्हें न निभाने का अर्थ है, मतदाता के साथ वैसा ही धोखा जैसे कोई कंपनी ग्राहक को नकली माल या सेवा का झूठा वचन देकर करती है जो कानूनन जुर्म होने के साथ ही दंडनीय भी है।

- चुनाव सुधारों की बात हम विगत चार दशक से कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 41 वर्ष पूर्व एक फैसला देते हुए कहा था कि प्रचार के दौरान पैसे का बहुत ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, जिससे चुनाव प्रक्रिया बिगड़ती जा रही है। चुनाव सुधारों का सही आशय है राजनीति की रीति-नीति को बदलना। इसके लिए इंदिरा गांधी का रायबरेली से निर्वाचन अवैध ठहराए जाने के समय से ही आवश्यकता मानी जा रही है और उसके प्रयास भी किए गए हैं।

- बाबू जयप्रकाश नारायण ने इसी उद्देश्य के लिए 1974-75 में सम्पूर्ण क्रांति की हुंकार लगाकर एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया, लेकिन जो नतीजे सामने आए, उन्होंने राजनीति को कुछ और ज्यादा सिद्धांतहीन और पाखंडपूर्ण बना दिया। मतदाता ने 2011 के अन्ना आंदोलन से एक बार फिर उम्मीद बांधी, लेकिन उसके नतीजे भी उतने ही निराश करने वाले रहे।

- चुनाव प्रचार के दौरान पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। बाद में फर्जी हिसाब चुनाव आयोग के समक्ष रख दिया जाता है और आयोग सब कुछ जानकर भी अनजान बने रहने का आडम्बर करता है। गोपीनाथ मुंडे ने तो भरी सभा में इस आडम्बर की पोल खोल दी थी, जब उन्होंने कहा था कि वह एक चुनाव में करीब 10 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। और, तमिलनाडु में खुलेआम कायदे-कानून की धज्जियां उड़ाई गईं। कई सौ करोड़ रुपये की नोटों की गड्डियां तो ट्रकों से पकड़ी गईं। मतदाताओं को पैसा, शराब, कपड़े, टेलीविजन, मोबाइल और नकदी तो छोड़िए, मोटर साइकिल व एयर कंडीशनर और पांच साल तक हर महीने 100 यूनिट फ्री बिजली।

- मतदाता आज चौराहे पर खड़ा है। चुनाव जीतने के लिए मतदाता को बार-बार ठगा जाता है। फिर एक ओर अरबों-खरबों के घोटाले होते रहते हैं तो दूसरी ओर उसे नए-नए टैक्स चुकाने के लिए विवश किया जाता है। समय आ गया है जब देश की जनता को यह बताया जाए कि प्रचार के समय रिश्वत, उपहार और ऊलजलूल खर्च के लिए पैसा कहां से आता है! राजनीतिक दलों को इसके लिए कानून का पाबंद करना होगा।

=>समाधान के बिंदु :-

-  जब तक राजनीतिक पार्टियों को जवाबदेह नहीं बनाया जाएगा, तब तक चुनाव सुधार की बात ही बेमानी है। भारी जनदबाव के बावजूद सभी दलों ने खुद को सूचना अधिकार कानून के दायरे से बाहर कर लिया है।

- यही स्थिति जिम्मेदार है कि हमारी संसद और विधानसभाओं में इतनी बड़ी संख्या में ऐसे संगीन अपराधी पहुंच गए हैं जिन पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सांसद या विधायक बनते ही संपत्ति में कई गुना इजाफा कैसे और क्यों हो जाता है, इसकी सच्चाई जनता के सामने आनी चाहिए।
समझना यह होगा कि जब तक मतदाता छोटे-छोटे लालच और स्वार्थों से ऊपर उठकर अपने दूरगामी हितों को नहीं पहचानेगा, तब तक वह राजनेताओं के झांसे में आता रहेगा। तब तक निष्पक्ष, स्वतंत्र और शांतिपूर्ण चुनावों की बात कानून की किताबों तक ही सिमटी रहेगी।

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