कार्यपालिका और न्यायपालिका का यह टकराव लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट कर रहा है

द टेलीग्राफ का संपादकीय

100 फीसदी खुद को सही ठहराने वाली जिद से किसी का भला नहीं होता. केंद्र और सुप्रीम कोर्ट के बीच की कड़वाहट पर अब खुले तौर पर नजर आने लगी है. यह एक चिंताजनक स्थिति है जिससे एक तरफ कुछ हासिल नहीं होगा और दूसरी ओर इन दोनों संस्थाओं की गरिमा को नुकसान पहुंचेगा.

  • हाल ही में 24 हाईकोर्टों में नियुक्ति प्रक्रिया के मुद्दे पर दायर एक जनहित याचिका मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली एक खंडपीठ का कहना था कि सरकार न्यायपालिका का नाश करने पर तुली है. अदालत ने सवाल किया कि अदालतों में ताले लगा दिए जाएं और लोगों को न्याय देना बंद कर दिया जाए.
  • यह कड़ी टिप्पणी उन जजों की नियुक्ति को लेकर केंद्र सरकार की कथित निष्क्रियता पर थी जिनके नाम कॉलेजियम केंद्र को भेज चुका है. मुख्य न्यायाधीश अदालतों में जजों के खाली पड़े पदों को लेकर पहले भी भावुक टिप्पणियां कर चुके हैं.
  • लेकिन केंद्र का बार-बार यही कहना है कि अड़ंगा उसकी तरफ से नहीं है. अपनी प्रतिक्रिया में उसने यह भी पूछा है कि निचली अदालतों में इतने पद खाली क्यों हैं जहां सुनवाई का इंतजार कर रहे मामलों की सूची सबसे लंबी है और जहां नियुक्तियों का जिम्मा सरकार नहीं बल्कि न्यायपालिका के ही पास है.
  • दोनों पक्षों की इस जिद के पीछे की वजह है आपातकाल के वर्षों वाले दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण के बाद न्यायपालिका का जरूरत से ज्यादा सुधार. 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका के शीर्ष स्तर पर नियुक्तियों और जजों के तबादले का काम पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया और सरकार की इसमें भूमिका सिर्फ औपचारिकता भर रह गई. यह व्यवस्था दुनिया में कहीं नहीं है.
  • इसमें सुधार की कोशिश राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के जरिये हुई थी जो सरकार को इस प्रक्रिया में एक सार्थक भूमिका दे रहा था लेकिन साल भर पहले सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया. तब से केंद्र और शीर्ष अदालत, दोनों अपने-अपने रुख पर अड़ते गए हैं जिससे न्याय प्रक्रिया में लगने वाली देरी और बढ़ी है.
  • इस टकराव का कोई मतलब नहीं है क्योंकि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका वे तीन खंभे हैं जिन पर भारतीय लोकतंत्र खड़ा है. अगर सरकार सुशासन के प्रति गंभीर है तो उसे न्यायपालिका के साथ मिलजुलकर इस समस्या का हल खोजने की कोशिश करनी होगी फिर भले ही दोनों पक्ष प्रस्तावित मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर पर सहमति बनाएं या फिर किसी और चीज पर.
  • सरकार के सिफारिशों पर बैठे रहने से न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार नहीं होगा. पहले इस संकट को गंभीर होने से रोका जाना चाहिए. जिन मसलों के सुलझने में ज्यादा वक्त लगता है उन्हें पर्याप्त वक्त देना ही होगा.

 

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