सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत

#Business_Standard_Editorials

हाल ही में social media पर आधारित events

  • अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और मैक्सिको के राष्ट्रपति एनरिक पेना नीटो की ट्विटर पर हो रही चर्चा ने दुनिया भर में न केवल सुर्खियां बटोरीं बल्कि मानव इतिहास के सबसे सफल कारोबारी समझौते नाफ्टा (उत्तरी अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते) तक को जोखिम में डाल दिया। दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क के नेता और उसके सबसे घनी आबादी वाले पड़ोसी मुल्क के नेताओं ने महज 280 शब्दों में इतिहास की नई इबारत लिख दी। इसके मूल में प्रश्न यह था कि अमेरिकी सीमा पर 15 अरब डॉलर की लागत वाली दीवार की लागत कौन उठाएगा।
  • तमिलनाडु में सोशल मीडिया ने एक व्यापक जनांदोलन को जन्म दिया, उसे उकसाया, खुराक दी और पूरे माहौल को उत्तेजित कर दिया। जल्लीकट्टू को लेकर विरोध प्रदर्शन ने ट्विटर, व्हाट्सएप और फेसबुक पर रफ्तार पकड़ी। इस दौरान शतरंज के चैंपियन खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद और क्रिकेटर रविचंद्रन अश्विन, फिल्मी जगत के सितारे कमल हासन और यहां तक कि ए आर रहमान तक इस बहस में शामिल हो गए। इस आंदोलन में कोई नेता नहीं था, कोई प्रवक्ता नहीं था, कोई ऐसा भी नहीं था जो वार्ता कर रहा हो। यह एक इलेक्ट्रॉनिक विद्रोह था। यह अरब उभार से कतई अलग नहीं था। 
  • इसी अवधि में हमारे सत्ता प्रतिष्ठïन ने दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक एमेजॉन (भारत में अरबों डॉलर की निवेश प्रतिबद्घता) को माफी मांगने की धमकी देकर इतिहास रचा। यह माफी इसलिए चाही गई क्योंकि उसकी कनाडाई इकाई ने भारत के राष्ट्र ध्वज के रंग वाले पायदान बनाए थे। विदेश मंत्री ने माफी मंगवाई जो कंपनी ने मांग ली। उन्होंने ट्विटर पर ओटावा में भारतीय प्रतिनिधि को सख्त निर्देश दिए कि वह इस मसले को कंपनी के समक्ष उठाए।

वॉशिंगटन, मैक्सिको, चेन्नई और नई दिल्ली के बीच जो कुछ हुआ उससे हम आसानी से कुछ नतीजों पर पहुंच सकते हैं।

  • सोशल मीडिया अब केवल संचार, बहस और गालीगलौज का जरिया नहीं रहा बल्कि वह प्रशासन, राजनीति और कूटनीति का औजार बन गया है।
  • इसने अब प्रशासन से धैर्य और परोक्ष माध्यमों तथा परदे के पीछे होने वाली बातचीत की शक्ति तथा सार्वजनिक राजनीति से जवाबदेही छीन ली है। अगर तमिलनाडु में हो रहे विरोध प्रदर्शन नियंत्रणहीन हो जाते तो किसे जिम्मेदार ठहराया जाता? अरब विद्रोह जैसे विफल उभार में हुई क्षति के लिए कौन जिम्मेदार है? हम एक ऐसी दुनिया से कैसे निपटेंगे जहां दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति एक जनजातीय मुखिया की तरह व्यवहार करता है या किसी ऐसे सम्राट की तरह जो पड़ोसी राजदूत का कटा हुआ सर भेजकर युद्घ की घोषणा करता है। या फिर दुनिया की सबसे बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी को आधी रात को सार्वजनिक रूप से अपने सबसे बड़े बाजारों में से एक के वरिष्ठï प्रशासनिक ओहदे की डांट का सामना करना पड़ता है। यह सोशल मीडिया के जरिये शासन का नया दौर है।
  • जब राज्यों के प्रमुख, राजनयिक और सार्वजनिक व्यक्तित्व इस चलन के शिकार हो जाएं तो यह उम्मीद करना बेमानी है कि पारंपरिक मीडिया इसका अनुकरण न करे। गूगल के बाद सोशल मीडिया का उभार हुआ और इसे काफी हद तक ढीलीढाली पत्रकारिता के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। प्राइम टाइम पर कई खबरें और बहस सोशल मीडिया पर केंद्रित हैं।

एक वक्त था जब सोशल मीडिया के आलोचक इसे इको चैंबर (जहां आवाजें निर्वात में गूंजती और खुद से टकराती रहती हैं) कहते थे। अब यह बदल गया है और ये आवाजें हमारे दिमागों, सरकार, राजनीति, सार्वजनिक विचार और बहसों को प्रभावित कर रही हैं। कई बार यह निहायत भोलापन लिए हो सकता है 

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