क्यों सैन्य ताकत से आईएस को पूरी तरह मिटाना संभव नहीं है

मोसुल का हाथ से निकल जाना इस्लामिक स्टेट (आईएस) के लिए शायद सबसे बड़ी सैन्य असफलता है. इराक का यह दूसरा सबसे बड़ा शहर उसकी सैन्य सफलताओं के मुकुट का कीमती रत्न था. यहां 2014 में उसके मुखिया अबू बकर अल बगदादी ने अपनी खलीफत की घोषणा की थी. लेकिन इसके तीन साल से भी कम वक्त के भीतर आईएस का दायरा सिकुड़ चुका है.

Spread over of ISIS now

 कभी सीरिया और इराक के एक बड़े हिस्से पर काबिज रहे इस संगठन का असर अब कुछेक इलाकों तक ही सीमित है. यह इसके खिलाफ लगातार चलाए गए सैन्य अभियान के बूते संभव हुआ है जिसमें कुर्द-शिया लड़ाकों, इराक और सीरिया की सेना और अमेरिका और रूस की वायु सेना शामिल रही है. कुछ हफ्ते पहले ही सीरियाई सेना ने आईएस को प्राचीन शहर पल्मीरा से खदेड़ा था और अब मोसुल में भी इसका लगभग सफाया हो चुका है. इराकी सुरक्षा बलों ने मोसुल के एयरपोर्ट सहित शहर की ज्यादातर प्रशासनिक इमारतों और आबादी वाले ठिकानों को अपने कब्जे में ले लिया है. अब इक्का-दुक्का हिस्से ही बचे हैं जहां से जिहादी प्रतिरोध जारी है.

Is it mean complete annihilation of ISIS

  • मोसुल में आईएस की हार का मतलब यह नहीं कि उसका खतरा खत्म हो गया है. इस संगठन की इराक के कुछ हिस्सों में पकड़ अब भी है
  •  सीरिया में दो रक्का सहित दो अहम शहर इसके कब्जे में हैं. अगर यहां से भी उसे उखाड़ फेंका जाता है तो भी यह संभावना तो है ही कि वह अल-कायदा जैसे संगठन में तब्दील हो जाएगा जिसके कब्जे में भले ही कोई इलाका न हो, लेकिन वह नागरिकों को निशाना बनाता रहता है. फिर भी यह तो है ही कि किसी इलाके के बिना आईएस खुद के खलीफत (धर्मराज्य) होने का दावा नहीं कर सकता.
  • यह शहरों से दूर बीहड़ों में खदेड़ दिया जाएगा और इसकी परंपरागत तरीके से लड़ने की ताकत खत्म हो जाएगी.
  •  छोटी अवधि में देखा जाए तो आईएस का कब्जा हटाने के लिए सीरिया और इराक में आईएस के खिलाफ सैन्य अभियान जारी रहना चाहिए. लेकिन लंबी अवधि के लिए कुछ और कदम भी उठाने होंगे. आईएस का खतरा फिर इतना पड़ा न हो, इसके लिए सरकारों को ख्याल रखना होगा कि उनका नजरिया समावेशी हो.

 

What is the need

  • इराक में आईएस की आखिरी हार इस पर निर्भर करती है कि सरकार शिया-सुन्नी तनाव से कैसे निपटती है.
  • प्रधानमंत्री अल अबादी की प्राथमिकताएं इस मामले में साफ दिखती हैं. उनके पूर्ववर्ती की शिया केंद्रित नीतियों ने देश की सुन्नी आबादी को सरकार के खिलाफ खड़ा कर दिया था. आईएस ने अपने समर्थन का किला इसी असंतोष की बुनियाद पर खड़ा किया.
  • लेकिन अल अबादी ने सुन्नी समुदाय तक पहुंचने की कोशिश करते हुए पुराने सामाजिक घाव भरने की कोशिश की है.
  • मोसुल में सेना की जीत के बाद उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि सुन्नी नागरिकों के साथ भी बराबरी का बर्ताव हो सत्ता में उनकी भागीदारी में एक संतुलन दिखे.
  • सांप्रदायिक तनाव की खाई वहां जितनी चौड़ी है उसे देखते हुए यह काम एक रात में संभव नहीं है. लेकिन अल अबादी कम से कम एक ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत तो कर ही सकते हैं जिससे सुन्नियों का उनकी सरकार के प्रति अविश्वास कम होना शुरू हो. नहीं तो आईएस जैसे संगठनों को समर्थन मिलने औऱ उनके वापसी करने का खतरा बरकरार रहेगा.

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