भारत और OBOR

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भारत ने बेजिंग में हुए ओबीओआर शिखर सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। ओबीओआर यानी वन बेल्ट वन रोड चीन की एक अति महत्त्वाकांक्षी परियोजना है और इसी पर व्यापक सहमति बनाने के मकसद से उसने यह सम्मेलन आयोजित किया था। प्रस्तावित परियोजना कितनी विशाल है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि :

Ø  दुनिया की आधी से अधिक आबादी, तीन चौथाई ऊर्जा-स्रोत और चालीस फीसद जीडीपी इसके दायरे में आएंगे।

Ø   इस परियोजना के तहत सड़कों, रेलवे और बंदरगाहों का ऐसा जाल बिछाया जाएगा जो एशिया, अफ्रीका और यूरोप के बीच संपर्क और आवाजाही को आसान बना देंगे।

Ø  तीनों महाद्वीपों के पैंसठ देशों को जोड़ने की इस महा परियोजना पर चीन 2013 से साठ अरब डॉलर खर्च कर चुका है और अगले पांच साल में इस पर छह सौ से आठ सौ अरब डॉलर निवेश करने की उसकी योजना है।

Ø   चीन का मानना है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा ‘सिल्क रूट’ होगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था की सुस्ती को तोड़ने का कारगर उपाय साबित होगा।

प्रस्तावित परियोजना के दायरे और संभावित असर ने स्वाभाविक ही दुनिया भर की दिलचस्पी इसमें जगाई है, जो कि बीआरआई यानी बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव शिखर सम्मेलन में अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों समेत बहुत-से देशों के राजनीतिक नेताओं और प्रतिनिधिमंडलों की भागीदारी से भी जाहिर है। लेकिन अपने तय रुख के मुताबिक भारत ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया।

Objection of India

Ø  दरअसल, भारत का एतराज सीपीईसी की वजह है। चीन सीपीईसी यानी चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर का निर्माण पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में कर रहा है, जिस भूभाग को भारत अपना हिस्सा मानता है। सीपीईसी ओआरओबी का हिस्सा है। इसलिए सीपीईसी से भारत के विरोध की परिणति ओआरओबी से अलग रहने के रूप में हुई है। जाहिर है, भारत का एतराज संप्रभुता से संबंधित है, न कि परियोजना के आर्थिक या व्यापारिक पक्ष को लेकर।

Ø  उसने कुछ दूसरे सवाल भी उठाए हैं। मसलन, परियोजना के तहत दिए जाने ऋण की अदायगी आसान हो। क्या यह मुद््दा उठा कर भारत ने ओआरओबी के दायरे में आने वाले छोटे देशों तथा बलूचिस्तान की दुखती रग पर हाथ रखना चाहा है!

Ø  गौरतलब है कि गिलगित-बल्तिस्तान के बहुत सारे लोग सीपीईसी को शक की नजर से देखते हैं; उन्हें लगता है कि सीपीईसी उनके लिए किसी दिन नई गुलामी का सबब बन जाएगा। एक तरफ पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में चीनी कंपनियों का दखल बढ़ता गया है और दूसरी तरफ चीन से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज लेने की पाकिस्तान की मजबूरी भी बढ़ती गई है।

यही नियति ओआरओबी के दायरे में आने वाले अन्य छोटे देशों की भी हो सकती है। एक तरफ उनके बाजार चीन के सस्ते उत्पादों से पट जाएंगे, और दूसरी तरफ वहां की सरकारें चीन से महंगे ऋण लेने को विवश होंगी। लेकिन तब हो सकता है वहां का राजनीतिक नेतृत्व कुछ ढांचागत परियोजनाओं का हवाला देकर, चीन के आगे झुकते जाने की विवशता को भी विकास के रूप में पेश करे। ओआरओबी चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग का सपना है और उनके सत्ता की कमान संभालने के कुछ समय बाद ही इसकी चर्चा शुरू हो गई थी। पर चीन की महा तैयारी के बावजूद ओआरओबी की राह आसान नहीं होगी। कहीं दुर्गम इलाके आड़े आएंगे, तो कहीं दो देशों के बीच स्थायी रूप से बनी रहने वाली तकरार। कई देशों का चीन के प्रति संदेह-भाव भी बाधा बन सकता है। अमेरिका से चीन की प्रतिस्पर्धा और दक्षिण चीन सागर के विवाद का भी असर पड़ सकता है। लिहाजा, ओआरओबी के भविष्य को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी।

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