#Editorial_Business_Standrad
Position of India on OBOR:
चीन की तरफ से पिछले महीने आयोजित बेल्ट ऐंड रोड फोरम (बीआरएफ) के बहिष्कार का भारत का फैसला बेहद साहसिक होने के साथ ही सरकार की पिछले तीन साल में विदेश नीति के मोर्चे पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि भी है।
Ø भारत ने इस सम्मेलन में शिरकत करने से नम्रतापूर्वक इनकार करने के बजाय इसका बहिष्कार किया और इस तरह समूचे हिंद-प्रशांत क्षेत्र को यह संकेत दे दिया कि वह चीन के आगे नहीं झुकेगा।
Ø यह कोई अवज्ञा नहीं है क्योंकि केवल मातहत और सहायक ही अनादर कर सकते हैं। इसके बजाय यह भारत का अपने आप में शक्ति का एक केंद्र होने की उद्घोषणा है और चीन के सम्मेलन में जाना उसके लिए बाध्यकारी नहीं है। यह इस क्षेत्र के देशों के लिए भी एक साफ इशारा है कि अमेरिका के अब उतने भरोसेमंद सहयोगी और साझेदार देश नहीं रह जाने के बाद भी चीन के पाले में कूद जाने की जरूरत नहीं है।
पिछले कुछ वर्षों में चीन ने शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ), एशिया आधारभूत निवेश बैंक (एआईआईबी) और अब बीआरएफ का जिस तरह से गठन किया है उससे स्वरूप एवं सार दोनों रूपों में अंतरराष्ट्रीय संबंध का मिडल किंगडम मॉडल की साम्यता नजर आती है।
हालांकि नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के बारे में चीन की अवधारणा को नकारने का भारत का उद्घोष बेहद महत्त्वपूर्ण होते हुए भी केवल पहला कदम है। अगर हम बहिष्कार को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में चीन की तरफ से चलाई जा रही परियोजनाओं के संदर्भ में ही देखते हैं तो इसकी पूरी संभावना है कि भारत अलग-थलग पड़ जाएगा। इसके बजाय हमें भारत की स्थिति को 21वीं सदी की विश्व व्यवस्था तय करने के चीनी मंसूबों के खिलाफ खुद को खड़ा करने के संकेत के तौर पर देखना चाहिए। यह एक लंबी प्रक्रिया लग सकती है लेकिन इसे हासिल करना उतना मुश्किल भी नहीं है।
· पहला, चीन की सरकार तीन महाद्वीपों में सड़क, रेल मार्ग, पुल और बंदरगाह बनाने में 10 खरब डॉलर का भारी-भरकम निवेश करेगी लेकिन वह इस निवेश पर रिटर्न हासिल करने की चाहत नहीं छोड़ सकती है।
· गरीब देशों की सरकारों को वित्तीय सहायता देने और गैर-प्रतिस्पद्र्धी अनुबंधों के लिए कर्ज मेला आयोजित करने से चीन को इस भारी निवेश पर माकूल रिटर्न मिल पाएगा। अगर चीन वैश्विक नेतृत्व खरीदने के लिए हजारों अरब डॉलर के इस कर्ज को माफ करने का फैसला करता है तो मुनाफा कमाने वाली आर्थिक साझेदारी की उसकी जरूरत और भी बढ़ जाएगी। दूसरे शब्दों में कहें तो चीन भारत, जापान और पश्चिमी देशों के साथ अपने द्विपक्षीय एवं सैन्य-आर्थिक संबंधों को बेहतर करने के लिए बाध्य हो जाएगा।
What should be India’s move:
· भारत को इस परिस्थिति का लाभ उठाने के लिए चुनिंदा तरीके से आर्थिक संपर्कों को खोलने और विस्तार देने की रणनीति अपनानी चाहिए। भारत को चीन से आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का फायदा उठाना चाहिए। चीन के पास मौजूद अतिरिक्त पूंजी उसे भारत की उपभोग एवं निवेश-वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए वित्त मुहैया कराने की इजाजत देती है। भले ही भारतीय उत्पादकों के संरक्षण के लिए दिशानिर्देश एवं डंपिंग-रोधी शुल्क जैसे उपाय हैं लेकिन भारत के आधारभूत ढांचे में चीन की हिस्सेदारी की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता है।' वह भारतीय निर्यातकों के लिए चीन के बाजार तक सुगम एवं त्वरित पहुंच सुनिश्चित करने की भी मांग करते हैं
· यह सोचना सही नहीं होगा कि चीन से कर्ज एवं निवेश लेने वाले देश अपने-आप चीन के प्रभाव-मंडल का हिस्सा बन जाएंगे। असल में, इन देशों की नीतिगत स्वायत्तता की चाहत इन्हें वैकल्पिक संबंधों की तरफ प्रेरित करने का काम करेगी ताकि वे उनका इस्तेमाल एक बाड़े की तरह कर सकें।
· चीन का 'एक क्षेत्र, एक सड़क' (ओबीओआर) कार्यक्रम भारतीय कूटनीति और कारोबार दोनों के लिए नए अवसर पैदा करता है। (यह अलग बात है कि पूर्व की ओर देखो नीति पर कई वर्षों से चलने के बावजूद हम अभी तक पूर्व तिमोर में भारतीय दूतावास नहीं खोल पाए हैं।)
· अगर भारत सरकार बीआरएफ से औपचारिक रूप से दूर रहती है तो भी भारतीय कंपनियां ओबीओआर से पैदा होने वाली व्यापक निवेश संभावनाओं का भरपूर लाभ उठा सकती हैं। बेशक, चीन अपनी कंपनियों के पक्ष में गोलबंदी करेगा लेकिन चीनी कंपनियों को भी प्रतिस्पद्र्धा से होने वाले लाभ को लेकर कोई एतराज नहीं होगा। गैर-चीनी कंपनियों के भी कारोबार के मौके होंगे और भारतीय कंपनियों के प्रतिस्पद्र्धी स्वरूप को देखते हुए भारतीय कंपनियों को भी मौका मिलेगा। भारत को ओबीओआर परियोजनाओं में हिस्सा लेने के लिए भारतीय निजी कंपनियों को प्रोत्साहित करना होगा ताकि वे भारत के हितों की वाहक बन सकें।
· भारत को ओबीओआर कार्यक्रम की जद में आने वाले देशों के साथ संपर्क बढ़ाने के लिए अपना एक अलग मॉडल विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव को पैसे के जोर पर हासिल करने के मामले में चीन को टक्कर नहीं दे सकते हैं। हालांकि हम बुनियादी आर्थिक और लोकतांत्रिक संपर्क के जरिये इन देशों के साथ अपने संबंध बेहतर कर सकते हैं। अफ्रीकी देशों के साथ इसी नीति पर चलते हुए हमें कामयाबी भी मिली है। अफ्रीकी देशों के साथ भारत और चीन के संपर्क पर किए गए अध्ययन में हैरी ब्रॉडमैन ने यह पाया कि भारत ने विकेंद्रीकृत निजी नेटवर्क और भारतीय मूल के लोगों की सुव्यवस्थित आबादी के दम पर वहां अपना अलग मुकाम बनाया है। ओबीओआर देशों के साथ संबंधों के मामले में भी हमें वही रवैया अपनाना चाहिए।
· आखिरकार, भारत जापान के साथ भागीदारी के जरिये अपनी रणनीतिक पहुंच में आमूलचूल बदलाव ला सकता है। हाल ही में इन दोनों देशों ने अफ्रीका विकास बैंक की बैठक में एशिया-अफ्रीका विकास कॉरिडोर के गठन का प्रस्ताव रखा है। पूरक क्षमताओं और साझा हितों के चलते भारत और जापान एक व्यापक क्षेत्रीय व्यवस्था बनाने में बढिय़ा साझेदार बन सकते हैं। यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि इतिहास में कभी भी कोई एक रेशम मार्ग नहीं रहा है।
विभिन्न देशों और साम्राज्यों ने अलग-अलग समय पर रेशम मार्ग बनवाए और उन्हें सुरक्षित भी किया। चीन की 'एक क्षेत्र एक मार्ग' परियोजना के साथ भी यही होगा। चीन के साथ यह पूरी दुनिया के हित में होगा कि 'कई क्षेत्र कई मार्ग' सक्रिय हों। उन रेशम मार्गों का इस्तेमाल मिडल किंगडम की चाहतों से नहीं बल्कि उन इलाकों के लोगों की जरूरतों के आधार पर तय होगा। यह भारत के भी हित में है और वह ऐसा कर पाने की स्थिति में भी है।