जवानों की समस्याओं की बात

# Editorial_Hindustan_times

सन्दर्भ

  • सीआरपीएफ के 59 जवानों से जुड़ा है, जो जम्मू-कश्मीर में पांच दिन की बेसिक ट्रेनिंग के बाद अपनी तैनाती पर जा रहे थे, लेकिन बीच सफर, आधी रात में मुगलसराय स्टेशन पर उतरकर वे अपने-अपने घर चले गए। जाहिर सी बात है, इस ब्रेक के लिए उन्होंने कोई पूर्व अनुमति नहीं ली थी। यह भी कि ट्रेनिंग के तत्काल बाद उन्हें नक्सल प्रभावित इलाके गया में ज्वॉइन करना था और यह अपरिहार्य था। सेना या सुरक्षा बलों में सब कुछ अपरिहार्य ही हुआ करता है और इसमें किसी छूट की गुंजाइश भी अपरिहार्य स्थितियों में ही संभव होती है।
  • अन्य  मामला सीआरपीएफ के ही एक अन्य जवान का है, जिसने अपने साथ अफसरों के कथित दुर्व्यवहार की बात करते हुए गृह मंत्री  को पत्र लिखा है। दोनों मामलों में विभागीय कार्रवाई शुरू हो चुकी है।

 

कुछ सवाल

  • आखिर वे कौन से कारण हैं कि हमारे जवान बार-बार कुछ ऐसा कर जा रहे हैं कि उनके प्रति संवेदना भी उमड़ती है और हर बार वे कठघरे में भी खड़े दिखाई देते हैं?
  •  वे कौन से कारक हैं, जो यह जानते हुए भी कि उन्हें सख्त अनुशासन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ सकता है, खुद से फैसले लेने को मजबूर कर रहे हैं?
  • और यह भी कि वे कारक कौन से हैं, जो इतनी सारी घटनाओं के बावजूद उन्हें अब तक यह भरोसा नहीं दिला पाए कि यह सब अंदर के फोरम पर ही हो, तो उनकी बात भी सुनी जाएगी और कोई एक्शन नहीं होगा?

ये सारे सवाल आपस में जुडे़ हुए हैं और समय रहते इन्हें संबोधित किया जाना जरूरी है।

  • अभी जो हाल में घटनाएं हुई है वो  सब पहली बार नहीं है। चाहे नियंत्रण रेखा पर तैनात बीएसएफ जवान की आवाज हो या सेना के जवान की शिकायत या फिर ऐसे ही अन्य मामले। सेना प्रमुख लाख कहें कि जवानों के लिए सारी व्यवस्थाएं समान हैं और यह भी कि उन्हें अपनी बात पहले अंदर उठानी चाहिए, लेकिन कहीं कुछ है, जो अनसुलझा है। जब सब कुछ बदल रहा है, तो हमें कठिन हालात में डटे रहने वाले अपने जवानों को हैंडल करने, उनकी चिंता करने की अपनी सोच के औजार भी बदल लेने चाहिए।

क्या है जरुरत

  • सख्त-अनुशासनबद्ध प्रशिक्षण प्रक्रिया के साथ ही सामान्य व्यवहार में लचीलापन और मनोरंजन पर भी समान रूप से ध्यान समय की मांग है।
  • जवानों और अफसरों, दोनों की प्रशिक्षण प्रक्रिया की समीक्षा की भी जरूरत है।
  •  देखना होगा कि तमाम बदलावों के साथ हमने इस प्रक्रिया में पिछले कुछ साल में क्या बदलाव किए? ठीक उसी तरह, जैसे 25-30 साल पहले की पढ़ाई में सख्ती सबसे बड़ा हथियार थी, पर बाद के दिनों में वैसी सख्ती कल्पना से भी परे हो गई और काउंसिलिंग का अध्याय जुड़ गया। जाहिर सी बात है कि जवानों का अपनी बात सार्वजनिक मंचों पर साझा करना, बिना अनुमति के सामूहिक रूप से गायब हो जाना घोर अनुशासनहीनता है।
  • क्या फौजी अनुशासन की मूल भावना के खिलाफ : इसको प्रश्रय देना न सिर्फ फौजी अनुशासन की मूल भावना के खिलाफ होगा, वरन अराजकता का भी कारण बनेगा। लेकिन यह भी उतना ही सही है कि अब तक जो भी सामने आया है, उस पर संवेदनशीलता से विचार करने की जरूरत है।

जवान जब सेना में भर्ती के लिए आता है, तो वह नौकरी नहीं, देशसेवा के जज्बे के साथ आता है। उसे पता रहता है कि जहां वह जा रहा है, वहां अनुशासन सर्वोपरि है। फिर भी वे कोई ‘गलती’ कर रहे हैं, तो यह हमारे सिस्टम की सक्रियता और संवेदनशीलता पर भी सवाल है। ये जवान सख्त ड्यूटी के बदले में संवेदना की उम्मीद करते हैं। इसे सिरे से नकारना तर्कसंगत न होगा। जब सब कुछ बदल रहा है, तो हमें सख्त अनुशासन वाले इस क्षेत्र में भी कुछ बदलाव लाने होंगे। यही कारगर होगा, और व्यावहारिक भी।

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