सन्दर्भ:- सतलुज-यमुना लिंक नहर मामले पर पंजाब का रुख संघीय व्यवस्था के लिए एक चेतावनी है.
इसमें कभी संदेह नहीं था कि पड़ोसी राज्यों के साथ जटबंटवारे का समझौता रद्द करने के लिए पंजाब ने 2004 में जो कानून बनाया वह न्याय के सिद्धांतों के सामने टिक पाएगा. पंजाब के इस कदम पर राष्ट्रपति द्वारा मांगी गई सलाह का जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया है. शीर्ष अदालत ने कहा कि 1981 के उस समझौते को रद्द करके पंजाब अपने वादे से मुकरा है जिसके तहत उसे हरियाणा और राजस्थान के साथ पानी साझा करना था और इस काम के लिए सतलुज-यमुना लिंक नहर बनानी थी. पंजाब के इस कानून का मकसद सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से बचना था जिसमें उसे अपने हिस्से की नहर के निर्माण के काम में तेजी लाने को कहा गया था.
शीर्ष अदालत के इस फैसले के पीछे वही कारण हैं जो कावेरी और मुल्लापेरियार बांध जैसे मामलों में दिए गए फैसलों के पीछे थे. अदालत ने फिर उसी सिद्धांत का हवाला दिया कि कोई राज्य किसी विधेयक के जरिये ऐसा काम नहीं कर सकता जो देश की शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए आखिरी फैसले के खिलाफ जाता हो. पांच सदस्यीय खंडपीठ के द्वारा दिया गया यह फैसला एक लिहाज से समय रहते फिर याद दिला रहा है कि अगर राज्यों को तथ्यों और कानूनों पर आधारित फैसलों को रद्द करते हुए न्यायिक शक्तियों को हड़पने की छूट दी गई तो यह कानून के शासन और संघीय व्यवस्था के लिए विनाशकारी होगा.
पंजाब में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने हैं और इस मुद्दे पर अब ज्यादातर पार्टियां यह दिखाने की कोशिश में लगी हैं कि राज्य के हितों का उनसे बड़ा रक्षक कोई नहीं. राज्यों के अपने मामलों में सबसे बड़ा जज बनने की यह प्रवृत्ति चिंताजनक है, खासकर पानी से जुड़े मुद्दों पर. सत्तासीन पार्टियों द्वारा बातचीत या विचार-विमर्श के बजाय विधेयक या फिर विधानसभा में प्रस्ताव पास करने का रास्ता अपनाने का चलन बढ़ता जा रहा है. विपक्षी पार्टियां भी इसमें इस डर के मारे बराबरी के साथ हिस्सा लेती हैं कि कहीं उन्हें राज्य के हितों का दुश्मन न समझ लिया जाए. पानी के बंटवारे क लेकर पंजाब की कुछ जायज शिकायतें हो सकती हैं. यही वजह भी थी कि 1985 में जब राजीव-लोगोंवाल समझौता हुआ तो उसमें पानी के बंटवारे से जुड़े प्रावधान भी रखे गए. इससे पहले मतभेद केंद्र द्वारा 1976 में जारी एक अधिसूचना के जरिये सुलझाए गए थे. बाद में जब मामला अदालत में गया तो 1981 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विवाद में मध्यस्थता की और दोनों राज्यों के बीच समझौता करवाया.
इसलिए देखा जाए तो मौजूदा व्यवस्था, जिससे पंजाब निकलना चाहता है, के तीन आधार हैं. यह समझौता और सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2002 और फिर 2004 में पंजाब के खिलाफ सुनाए गए फैसले. इसलिए पंजाब को अब ज्यादा देर नहीं करनी चाहिए और अपने हिस्से की नहर का काम पूरा करना चाहिए ताकि समझौते के मुताबिक जिस पानी पर हरियाणा का हक है उसका वह इस्तेमाल कर सके. अगर पंजाब को लगता है कि उसे नुकसान हो रहा है तो अब भी बातचीत और समझौते की गुंजाइश निकल सकती है. लेकिन यह अकेले कोई फैसला नहीं कर सकता.