- इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2016 में शामिल 118 देशों में भारत का 97वें नंबर पर आना शर्मसार करने वाला है। यह आंकड़ा हमारे विकास के तमाम दावों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है।
- जिस देश में 15 फीसदी लोग आधा पेट खाने से जीवनयापन करते हों, वह देश वैश्विक ताकत होने का दंभ कतई नहीं भर सकता। जिस देश में 39 फीसदी बच्चे अविकसित हों यानी कुपोषण के शिकार हों, उस देश के भविष्य की कल्पना करना कठिन नहीं है। इन हालात में हम पड़ोसी पाकिस्तान के समकक्ष हैं और अन्य पड़ोसी देशों म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका व बांग्लादेश से पीछे हों तो यह हमारी तमाम उपलब्धियों पर सवालिया निशान लगाने वाला है।
- सवाल खड़े किये जा सकते हैं कि सर्वे करने वाली संस्था ने किस मकसद और किन तौर- तरीकों से सर्वे किया। यह भी कि भारत विशाल आबादी के चलते विकास के आंकड़ों में पीछे नजर आता है। मगर इसके बावजूद स्थिति चिंताजनक तो है ही। ऐसे में भूख के खिलाफ युद्धस्तर पर अभियान चलाने की जरूरत है।
- दरअसल, वैश्वीकरण और उदार आर्थिक नीतियों ने देश में आर्थिक विषमता का दायरा बढ़ाया है। देश की बहुसंख्यक आबादी कृषि व कुटीर उद्योग-धंधों के जरिये जीविका का उपार्जन करती रही है।
बदलते वक्त के साथ खेती का रकबा कम हुआ, पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंटवारे से खेत की जोत संकुचित हुई, चीन के सस्ते माल से गांव-देहात के कुटीर उद्योग-धंधों पर मार पड़ी।
- इन सभी कारणों से गरीबी का दायरा बढ़ा। इसके बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े रहने की ललक लोगों को कम आय के बावजूद गांव-देहात से जोड़े रखती है। बेहतर रोजगार के लिये पलायन तभी होता है जब जीवन पर बन आती है।
- दूसरे, देश में गहराये भ्रष्टाचार ने सार्वजनिक अन्न वितरण प्रणाली को घुन की तरह खोखला कर दिया। जिस देश में दो करोड़ के लगभग फर्जी राशनकार्ड हों, वहां न्यायपूर्ण ढंग से अनाज का मिलना संभव नहीं है।
- दलालों, ठेकेदारों व भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से अनाज बाजार में बिक जाता है। कहीं न कहीं अशिक्षा व अज्ञानता भी कुपोषण की वाहक बनती है। मनरेगा जैसी रोजगारपरक विकास योजनाएं भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं हैं। बहरहाल, तमाम राजनीतिक प्रपंचों से मुक्त होकर भूख के खिलाफ युद्ध के ऐलान करने का वक्त आ गया है। यदि ऐसा हुआ तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी भूख की हूक चुभती रहेगी।