#Editorial_Dianik Tribune
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लंबे समय से जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों को राहत देने का मामला एक बार फिर चर्चा में है। इस बार चर्चा की वजह विधि आयोग है जो जमानत संबंधी कानूनी प्रावधानों में व्यापक परिवर्तन करने की सिफारिश करने जा रहा है।
Recommendations:
- विधि आयोग सिफारिश करेगा कि यदि सात साल तक की कैद की सज़ा के अपराध के आरोप में बंद विचाराधीन कैदी प्रस्तावित सज़ा की एक-तिहाई अवधि या ढाई साल जेल में गुजार चुका हो तो उसे जमानत पर रिहा कर दिया जाना चाहिए।
- हालांकि, आयोग विभिन्न किस्म के अपराध के आरोपों में बंद विचाराधीन कैदियों के प्रति नरमी दिखा रहा है लेकिन वह आर्थिक अपराध के आरोपों में गिरफ्तार आरोपियों के साथ किसी प्रकार की नरमी बरतने के पक्ष में नहीं है।
- जमानत को सहज बनाने के लिये इसमें व्यापक बदलाव के साथ ही विधि आयोग दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-ए में भी संशोधन चाहता है ताकि सात साल से अधिक की सज़ा के अपराध के आरोप में जेल में बंद विचाराधीन कैदी को मुकदमे की सुनवाई के दौरान प्रस्तावित सज़ा की आधी अवधि जेल में गुजारने पर जमानत पर रिहा किया जा सके।
Present law:
इस समय कानूनी प्रावधानों के अनुसार किसी अपराध, जिसकी सज़ा मौत नहीं है, का आरोपी अपने अपराध की सज़ा की आधी अवधि जेल में गुजार चुका है तो उसे जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए। आयोग ऐसे विचाराधीन कैदी जो गैर-मौद्रिक जमानत पेश नहीं कर सकता, आधार कार्ड, चुनाव पहचान पत्र या पैन कार्ड जैसे शासकीय पहचान दस्तावेज जमा कराने की बजाय जमानत के लिये किसी व्यक्ति द्वारा यह वचन दिये जाने पर कि विचाराधीन कैदी आवश्यकता पड़ने पर संबंधित प्राधिकारियों के समक्ष पेश होगा तो इसकी अनुमति दी जा सकती है। हालांकि आयोग अभी भी एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू पर काम कर रहा है। वह है कि यदि पहचान संबंधी दस्तावेज जमा कराने के बाद ऐसा व्यक्ति नहीं आया तो उस स्थिति में क्या होगा।
A cause worth taking action:
- इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि केन्द्र में कानून मंत्री हमेशा ही विचाराधीन कैदियों की स्थिति को लेकर चिंता व्यक्त करते रहे हैं।
- विधि आयोग ने 2016 में एक नया जमानत कानून बनाने का सुझाव दिया था परंतु इस साल के प्रारंभ में उसने इसमें बदलाव कर दिया क्योंकि उसे महसूस हुआ कि इसके लिये अलग से एक कानून की आवश्यकता नहीं है। मौजूदा सरकार महसूस करती है कि आरोपियों को अधिकार के रूप में जमानत मिलनी चाहिए और किसी भी आरोपी को इससे तभी वंचित किया जाना चाहिए जब उसके साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने, गवाहों को प्रभावित करने और जेल से बाहर आने पर फिर अपराध करने की आशंका हो।
- दिलचस्प बात यह है कि विधि एवं न्याय मंत्रालय महसूस करता है कि दंड प्रक्रिया संहिता के मौजूदा प्रावधानों में ही अपेक्षित संशोधन करके अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
- अगर विचाराधीन कैदियों के संबंध में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का अवलोकन करें तो स्थिति कुछ अलग ही तस्वीर पेश करती है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही सितंबर 2014 में उच्चतम न्यायालय ने भी विचाराधीन कैदियों की रिहाई के संबंध में उच्च न्यायालयों को विस्तृत निर्देश दिये थे। इसके बाद, राजग सरकार के मौजूदा कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने भी इस दिशा में पहल करते हुए सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखकर उनसे जिलास्तर की न्यायपालिका को ऐसे मामलों की समीक्षा करने और स्वतः ही कार्रवाई करने का निर्देश देने का आग्रह किया था।
Undertrial Prisoners:
एक अनुमान के अनुसार देश की 1401 जेलों में 67 प्रतिशत से अधिक कैदी विचाराधीन हैं। इस स्थिति से निपटने के लिये अदालतों को युद्धस्तर पर काम करना होगा। एक और पहलू पर गंभीरता से विचार की जरूरत है। वह है गिरफ्तार व्यक्तियों के प्रति पुलिस को संवेदनशील बनाना।
फिलहाल तो विधि आयोग की प्रस्तावित सिफारिशों का इंतजार है। उम्मीद है कि इस रिपोर्ट पर अमल होने की स्थिति में कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा हो सकेगी।