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देश में लिंग-अनुपात के लगातार कम होने के जो आंकड़े हमारे सामने आ रहे हैं, वे न सिर्फ हमारी मानसिकता बताते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि इसे दुरुस्त करने के सारे सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास निरर्थक हो चुके हैं।
- उसके लिए चले जन-जागरण और विज्ञापन अभियानों में पैसा भले ही लगा हो, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
- साथ ही लिंग परीक्षण रोकने के लिए की गई सारी कोशिशें, सारी सख्ती और सारी चेतावनियां भी बेमतलब साबित हुईं।
- लगभग डेढ़ दशक के इन तमाम प्रयासों के बाद अब ऐसा लग रहा है कि हम आगे बढ़ने के बाद और पीछे आ गए हैं।
Situation across the states
देश के तकरीबन सभी राज्यों में यही हाल है। पिछले कुछ साल से पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में हालत मामूली ही सही, सुधार की ओर बढ़ती दिख रही है, लेकिन लिंग-अनुपात के मामले में स्थिति अब भी शर्मनाक बनी हुई है। जबकि उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या का कम होना अभी तक जारी है। पूर्वोत्तर भारत के असम और मणिपुर जैसे जो प्रदेश अभी तक इस मामले में ठीक माने जाते थे, अब वहां भी लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले कम होने लगी है। केरल अकेला राज्य है, जहां स्थिति दूसरे राज्यों के मुकाबले पहले ही बेहतर थी, उसने अपनी बढ़त को तेज किया है। वह 1,000 लड़कों के मुकाबले 1,024 लड़कियों के अनुपात तक पहंुच गया है।
Other form of discrimination
- नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के ये आंकड़े यहीं तक नहीं रुकते, वे बताते हैं कि मामला लड़कों के मुकाबले कम लड़कियों के पैदा होने तक ही नहीं है।
- कुपोषण और अन्य बीमारियों के कारण पांच साल तक के बच्चों की जो मृत्यु-दर है, उसमें लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या ही ज्यादा होती है।
- पिछले साल ऐसे कुपोषित या रोगग्रस्त 8,42,000 बच्चों को नियानेटल केयर यूनिट में भर्ती कराया गया था, उनमें सिर्फ 41 प्रतिशत लड़कियां थीं।
- यह बताता है कि बीमार बच्चों में भी इलाज के लिए हमारी प्राथमिकता लिंग आधारित है। यानी पहले तो हम लिंग परीक्षण द्वारा बड़ी तादाद में लड़कियों को पैदा होने से ही रोक देते हैं और जो लड़कियां पैदा होती भी हैं, उनके भी जीने की संभावनाएं लड़कों के मुकाबले बहुत कम होती हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार एक दशक में लगभग 70 लाख लड़कियां हमारी गलत सामाजिक सोच की भेंट चढ़ जाती हैं। यह संख्या बुल्गारिया जैसे देश की पूरी आबादी के बराबर है।
What measures to be taken
यह ऐसी समस्या है, जिसका मुकाबला न तो हम पूरी तरह सरकारी प्रयासों से कर सकते हैं, और न ही गैर-सरकारी संस्थाओं की सक्रियता से। इन दोनों की कोशिशें जरूरी हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। यह स्थिति स्त्री को दोयम मानने की हमारी रुग्ण सामाजिक सोच का परिणाम है, इसलिए इसका मुख्य मुकाबला हमें सामाजिक स्तर पर ही करना होगा। यह काम दो कारणों से कठिन है, एक तो हमारी यह सोच सदियों पुरानी है, जो पिछले कुछ समय में ज्यादा ही मजबूत हो गई है। दूसरे, वे सामाजिक सुधार आंदोलन बहुत कम हो गए हैं, जो पूरे समाज की सोच बदल देते थे। हालांकि यह असंभव नहीं है, क्योंकि अतीत में भी हमने कई सामाजिक बुराइयों से मुक्ति पाई है और हमारे यहां सामाजिक सुधार की एक बड़ी परंपरा रही है, जो हाल-फिलहाल कुछ कमजोर पड़ी है। विडंबना यह है कि लड़कियों की संख्या उस समय कम हो रही है, जब ये लड़कियां ही हमें गर्व के कारण दे रही हैं- चाहे वह विभिन्न परीक्षाओं में अव्वल आने का मामला हो या ओलंपिक जैसे खेलों में पदक जीतने का।