निर्भया कांड के चार साल बाद भी हमने नहीं सीखे अहम सबक

निर्भया मामले के चार साल बाद भी अगर हालात लगभग जस के तस हैं तो इसकी वजह यह है कि उससे सबक नहीं सीखे गए. (द इंडियन एक्सप्रेस का संपादकीय)

  • निर्भया को गए चार साल हो चुके हैं. उसके साथ जो हिंसा हुई थी उसे समझना तो छोड़िए, उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. तब देश ने वादा किया था कि वह महिलाओं को न्याय देगा. इसके बजाय उसने उन्हें एक कानून दिया.
  • तथ्य सीधे हैं. 2012 में दिल्ली में हुई गैंगरेप की उस घटना के बाद देश भर में अब पहले से ज्यादा महिलाओं यौन हमलों की सूचना देने पुलिस के पास जा रही हैं. पुलिस भी अब उनकी शिकायत पर ध्यान देने में पहले से ज्यादा चुस्ती बरत रही है. यह एक अच्छी बात है. आपराधिक न्याय व्यवस्था सच से आंखें चुराकर नहीं बनाई जा सकती.
  • लेकिन पीड़ितों की गवाही को काफी अहम मानने और तेज सुनवाई का वादा करने वाले कानून के बावजूद अब भी अपराध साबित होने की दर में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आया है. दोषी आज भी बड़ी संख्या में छूट जा रहे हैं. इसकी वजह यह हो सकती है कि देश भर में पुलिस अब भी ऐसे सबूत जुटाने में अक्षम है जो सुनवाई के दौरान ठोस साबित हों.
  • राजनेताओं ने जब यौन हमलों पर नया कानून पारित किया था तो उन्होंने यह भी वादा किया था कि पुलिस को जांच की आधुनिकतम तकनीकों से लैस किया जाएगा जिसमें फॉरेंसिक भी शामिल है. लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो यह अब तक नहीं हुआ है.
  • जांच के लिए पुलिस को दिया जाने वाला प्रशिक्षण बहुत ही अपर्याप्त है. कई राज्यों में तो इसके पाठ्यक्रम आजादी के बाद से कोई खास बदलाव नहीं किया गया है. कॉन्सेबल अपराधस्थल पर पहुंचने वाला पहला पुलिसकर्मी होता है. लेकिन इस स्तर पर प्रशिक्षण अब भी बहुत कम है. पुलिस बल में मानव संसाधनों की भी कमी है और सरकारों के लगातार वादों के बावजूद यह अब भी एक गंभीर संकट के रूप में बनी हुई है.
  •  फॉरेंसिक लैबों पर काम का पहाड़ है. जिले के स्तर पर तो वे जैसे हैं ही नहीं. कुछ ही पुलिस थाने होंगे जहां सबूत इकट्ठा करने के लिए प्रशिक्षण पाई इकाइयां होंगी. सीधे कहा जाए तो हमारी पुलिस के पास प्रशिक्षण, स्टाफ और पैसे, तीनों अहम चीजों की कमी है.

What can be learnt:

इस अप्रिय स्थिति से सबक लेने की जरूरत है. उनमें

  • एक अहम सबक यह भी है कि सिर्फ कानून बनाने से काम नहीं चलता. नीतियों के हर पहलू पर काम करने की जरूरत होती है. अक्सर सरकारें फौरी प्रतिक्रिया दिखाती रही हैं और असफल होती रही हैं
  • दूसरा सबक यह है कि अगर हम चाहते हैं कि आम जनता के सामने वे खतरे न आएं जो वह रोज झेलने के लिए मजबूर है तो पुलिस की क्षमताएं बढ़ाने के काम में अब और देर नहीं की जानी चाहिए. सड़क हादसों से लेकर गली-कूचों में होने वाली हिंसा और यौन हमलों तक तमाम समस्याओं से तभी प्रभावी तरीके से निपटा जा सकता है.

कानून का राज किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होता है. पुलिस की जवाबदेही और उसकी स्वायत्तता इस बुनियाद की रक्षा के लिए जरूरी हथियार हैं. निर्भया के साथ चार साल पहले जो हुआ और आज भी कई महिलाओं के साथ जो हो रहा है, उससे सिर्फ गुस्सा नहीं आना चाहिए बल्कि एक प्रतिबद्धता भी पैदा होनी चाहिए कि हम अपनी सरकारों को जवाबदेह बनाएं.

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