देशद्रोह कानून (Sedition law):क्या इसे होना चाहिए

इतिहास

1898 में भारतीय दंड संहिता में पहली बार अंग्रेजो द्वारा भारतीय आवाज को दबाने के लिए यह संहिता पहली बार लाइ गई | इसमें अविलंब सुधार के लिए देश के सभी बडे विधिवेत्ता कह चुके हैं और सर्वोच्च न्यायालय एवं कई राज्यों के उच्च न्यायालय फिर भी यह क़ानून की किताबो में वैसे ही है जैसे परतंत्र भारत में था |

इसका misuse :

कोई भी राजनीतिक दल जब विपक्ष में होता है तब सत्तारूढ़ दल द्वारा उपनिवेशवादी संप्रभुओं के बनवाए ऐसे दमनकारी कानून के इस्तेमाल की कड़ी निंदा करता है, लेकिन सत्ता में आकर उसका स्वर बदल जाता है और वह खुद भी कई मामलों में अपनी आलोचना पर इस या इस जैसे अन्य कानूनों की मदद से ढक्कन लगाने लगता है। फिर भी सरकार को घेरने वाले घोटालों से लेकर मानवाधिकार हनन तक के मामले सामने लाने वाले पत्रकारों, आम नागरिकों या नागरिक संगठनों के खिलाफ आज भी कई राज्य सरकारें इस कानून का इस्तेमाल करती हैं। वे कई बार जायज विरोध को भी देशद्रोह की संज्ञा देकर धारा 124 ए के तहत लोगों को प्रताड़ित कर सकती हैं।

हाल की घटनाए :

  • देशद्रोह कानून के इस्तेमाल का सबसे चर्चित प्रकरण कर्नाटक का है जहां आरएसएस की छात्र इकाई भारतीय अखिल विद्यार्थी परिषद ने बेंगलुरु में 15 अगस्त को हुए एक कार्यक्रम के दौरान कुछ तत्वों की नारेबाजी पर आयोजक संस्था- Amnesty इंडिया पर एक प्राथमिकी इसी कानून के तहत दर्ज कराई। सम्मेलन के दौरान संस्था या फिर उसके सदस्यों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसे गैरकानूनी और देशद्रोह की परिधि के भीतर साबित किया जा सकता हो

  • इस मामले के शांत होने के पहले ही कांग्रेस सांसद एवं अभिनेत्री राम्या के खिलाफ देशद्रोह कानून के तहत शिकायत दर्ज कराने की मांग उठी, क्योंकि उन्होंने कह दिया था कि वह पाकिस्तान को नर्क नहीं मानती

सर्वोच्च न्यायालय का judgement :

  • 1962 में देशद्रोह कानून के तहत दायर केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मुकदमे की सुनवाई में चीफ जस्टिस भुवनेश्वर प्रसाद ने साफ कर दिया था कि देशद्रोह का अपराध बहुत संगीन होता है। राज्य सरकार द्वारा बिना किसी ठोस प्रमाण सिर्फ किसी अभियुक्त की नीयत पर शक करते हुए उस पर राज्यसत्ता के खिलाफ हिंसक तख्तापलट का आरोप लगा देना जायज नहीं बनता।

  • इसके बाद 1985 में पंजाब सरकार बनाम बलवंत सिंह मामले में उच्च न्यायालय ने खालिस्तान के पक्ष में नारेबाजी को धारा 124 ए लगाए जाने योग्य न मानते हुए अभियुक्त को बरी कर दिया। इस फैसले में अदालत ने कहा था कि देशद्रोह सरीखे संगीन आरोप को साबित करने वाले प्रमाणों पर जो स्पष्ट कानूनी निर्देश उपलब्ध हैं, कई निचली अदालतें विविध वजहों से उनकी अनदेखी कर ताबड़तोड़ फैसले दे देती हैं।

क्या यह होना चाहिए :

  • यह ठीक है कि देश को उसे साजिशन विखंडित करने वाली ताकतों से निबटने के लिए एक असरदार कानून चाहिए, लेकिन सरकार को देश का पर्याय बताना भी अनुचित है।

  • संघीय गणराज्य भारत एक विशाल इकाई है जिसकी परिधि में अनेक भिन्न रंगतों वाली विपक्षी दलों की राज्य सरकारें भी आस्तित्व रखती हैं। कोई काम देशद्रोह की संज्ञा तभी पा सकता है जबकि उसका दुष्प्रभाव समूचे देश की प्रभुसत्ता के लिए खतरनाक साबित होता हो। 

  • माननीय राष्ट्रपति ने फरवरी 2016 में कोच्चि की एक स्पीच में कहा  हैं कि अंग्रेजों के जमाने के कई दमनकारी प्रावधानों का लोकतांत्रिक भारत में संविधान प्रदत्त अन्य अधिकारों से विरोध है। इसलिए उनमें समुचित बदलाव जरूरी है।

क्या सुधार आवश्यक :

Øइस धारा में देशद्रोह शब्द को नागरिकों द्वारा सरकार की आलोचना से न जोड़ा जाए। 

Øस्वस्थ लोकतंत्र में सरकार की स्वस्थ आलोचना का बहुत मोल है। बेहतर हो देशद्रोह की साफ व्याख्या कर बताया जाए कि किस तरह की कौन सी गतिविधियां भारतीय गणराज्य के खिलाफ गंभीर षड्यंत्र माने जाएंगे ताकि इस धारा का राष्ट्रीय आपात स्थिति के दौरान भी दुरुपयोग नहीं हो

Øदेशद्रोह से जुड़े कानून की आड़ में सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करती है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस कानून की कड़ी आलोचना होती रही है| यंहा तक की ब्रिटेन ने अपने देश में इस क़ानून को ख़त्म कर दिया है

 

 

 

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