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सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से Privacy यानी निजता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार का हिस्सा मानकर एक नया इतिहास रच दिया है। निजता के अधिकार को मूल अधिकार करार देने के निर्णय के बाद उस फैसले का इंतजार है जो अनेक योजनाओं में आधार को अनिवार्य बनाए जाने के मामले में आना है। इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ कर रही है।
Why 9 judge bench
दरअसल जब इसी मामले की सुनवाई के दौरान निजता के अधिकार के मूल अधिकार होने-न होने का सवाल उठा तब मामला नौ सदस्यीय पीठ को सौंपा गया। इतनी बड़ी पीठ इसलिए बनानी पड़ी, क्योंकि पहले छह और आठ सदस्यीय पीठ निजता के अधिकार को मूल अधिकार न मानने का फैसला दे चुकी थीं।
Question in front of bench regarding right to privacy
इस नौ सदस्यीय पीठ के सामने बड़ा सवाल यही था कि क्या निजता का अधिकार संविधान के तहत मौलिक अधिकार है और क्या मौलिक अधिकार का उल्लघंन होने पर लोग उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय से न्याय की गुहार लगा सकते हैं?
Previous reference of right to privacy
- शीर्ष अदालत ने इसके पहले अनेक फैसलों के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य, जल्द न्याय, स्वस्थ्य पर्यावरण एवं भोजन को जीवन के अधिकार के तहत परिभाषित किया था।
- शीर्ष अदालत के इस फैसले में 1954 के खड़कसिंह और 1962 के एमपी शर्मा के पुराने फैसलों को पलटने का भी काम किया गया है।
- इन पुराने फैसलों में सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा और अपराध रोकने के लिए सरकार के विशेषाधिकारों को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं माना था। हालांकि इसके बावजूद उसके अनेक फैसलों में प्राइवेसी को हमेशा ही संवैधानिक अधिकार माना गया।
चूकि नवीनतम फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानने के बावजूद सरकार के विशेष अधिकारों को माना गया है इसलिए यह सवाल उठ सकता है कि आखिर पुराने फैसलों को किस हद तक गलत माना जा सकता है?
चूंकि जनता के कल्याण के लिए सरकार को अपने स्तर पर कदम उठाने का अधिकार प्राप्त है इसलिए इस फैसले के बाद उसके ऐसे कदमों को इस कसौटी पर कसा जा सकता है कि कहीं वे मूल अधिकार बन गए निजता के अधिकार का हनन तो नहीं करते?- यदि सरकार के ऐसे कदमों को चुनौती दी गई तो उसकी अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन पर सवालिया निशान भी लग सकते हैं? शीर्ष अदालत के नवीनतम फैसले में राष्ट्र्रीय सुरक्षा, अपराध रोकने एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए सरकार की भूमिका को प्राइवेसी का उल्लघंन नहीं माना गया है, लेकिन इस फैसले के बाद सरकार अब किसी नागरिक को निजी जानकारी देने के लिए बेवजह बाध्य नहीं कर
- इस फैसले के बाद सरकार द्वारा जनता की निजी जानकारी का अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल गैर-कानूनी माना जा सकता है। निजता पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार को कई कानूनों में बदलाव करने पड़ सकते हैं।
Security of private data
शीर्ष अदालत में सुनवाई के दौरान लोगों के निजी डाटा की सुरक्षा का सवाल भी सामने आया। शीर्ष अदालत के इस फैसले को सही तरह लागू करने के लिए इंटरनेट कंपनियों को अपने सर्वर्स भारत में स्थापित करने पड़ सकते हैैं। यह सही सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर डिजिटल युग में निजी कंपनियों द्वारा निजता के उल्लघंन पर रोक कैसे लगेगी?
स्मार्ट-फोन और सोशल मीडिया के दौर में लोगों की व्यक्तिगत जानकारी इंटरनेट कंपनियों के माध्यम से बाजार के हवाले हो जाती है। सरकार द्वारा डेटा सुरक्षा के मामले पर कानून बनाने के लिए पूर्व न्यायाधीश श्रीकृष्णा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है। डिजिटल इंडिया के विस्तार के बाद डेटा सुरक्षा पर सरकार द्वारा इस समिति का गठन देरी से उठाया गया कदम माना जा रहा है।
How FR will make difference:
किसी अधिकार के मूल अधिकार में आने का मतलब है कि उसमें छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। 1973 में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंंच ने सात जजों के बहुमत से केशवानंद भारती मामले में यह फैसला दिया था कि मौलिक अधिकार संविधान के मूल ढांचे के तहत आते हैं जिन्हें संसद भी नहीं बदल सकती। अगर कोई सरकार संसद के जरिये ऐसा करे भी तो शीर्ष अदालत उसे रद कर सकती है। जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाने के लिए संविधान संशोधन के जरिये संसद ने कानून बनाया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2015 में रद कर दिया था। ऐसा तब हुआ था जब दोनों सदनों ने सर्व सम्मति से यह कानून बनाया था।
View of government
- सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी गई थी कि कॉमन लॉ के तहत प्राइवेसी का कानून है पर इसे मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता।
- सरकार के अनुसार भारत विकासशील देश है जहां कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार को सक्रिय भूमिका निभानी पड़ती है।
- आधार और अन्य योजनाओं में लोगों की निजता को सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त कानूनों का सरकार ने हमेशा दावा तो किया है, लेकिन उसके दावे पर सवाल उठते रहे है।
- सरकार द्वारा आधार, वोटर कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, इनकम टैक्स, बैंक खाते खोलने एवं अन्य अनेक योजनाओं के लिए जनता की निजी जानकारी एकत्रित की जाती है। निजता के अधिकार के मूल अधिकार बन जाने के बाद सरकार पर इस जानकारी का सही तरह रख-रखाव करने की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी। इस फैसले का असर समलैगिकता संबंधी कानून पर भी पड़ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमल में लाने के लिए राजनीति के अलावा अनेक व्यावहारिक चुनौतियां आ सकती हैं, जिन्हें राजनीतिक सहयोग से ही हल किया जा सकता है। अभी यह देखना शेष है कि क्या सरकार शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए फैसलों के अनुरूप प्राइवेसी पर प्रतिबंधों और अपवादों को परिभाषित करेगी, क्योंकि कोई भी मूल अधिकार असीमित नहीं हो सकता। आधार को केंद्र में रखकर डिजिटल इंडिया और गर्वनेंस की अन्य योजनाओं का शीर्ष अदालत के फैसले का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह आधार पर फैसला आने के बाद ही पता चलेगा, लेकिन सरकार के सामने यह चुनौती तो है ही कि निजी क्षेत्र और विशेष रूप से डिजिटल कंपनियों पर यह लगाम कैसे लगे कि वे लोगों की निजी जानकारी अन्य किसी को न दें? तकनीक के इस दौर में ऐसे सवालों का सही जवाब नहीं दिया जा सका तो प्राइवेसी पर शीर्ष अदालत का फैसला कानून के जंजाल में एक और रिसर्च पेपर बनकर रह जाएगा।