आदेशों की अवमानना से परेशान न्यायपालिका

#Business Standard Editorial 

  • न्यायपालिका राज्य का वह अंग है जिसके पास अपने आदेशों के अनुपालन के लिए कोई एजेंसी नहीं होती है।
  •  उसे अपने आदेशों को लागू कराने के लिए कार्यपालिका या विधायिका की मदद लेनी पड़ती है।

इतिहास के पन्नो से

उच्चतम न्यायालय के आदेशों की खुलेआम आलोचना करने वाले दो मुख्यमंत्रियों ने बाद में उससे माफी भी मांगी। कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा ने वर्ष 2008 में कावेरी नदी जल विवाद पर उच्चतम न्यायालय के आदेश का उल्लंघन किया था जबकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने वर्ष 1994 में अयोध्या के विवादित ढांचा प्रकरण में आदेशों की अवहेलना की थी

हालही में  पुनरावृत होती

 न्यायपालिका के सामने एक बार फिर ऐसे हालात पैदा हुए हैं जब उसके आदेश का पालन नहीं किया जा रहा है। कावेरी पर पैदा हुए नए संकट के अलावा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) में पारदर्शिता लाने के लिए गठित लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने में भी कोताही बरती जा रही है। 

  • इसी में बिहार में हाल ही में पहले पटना उच्च न्यायालय ने बिहार के शराबबंदी कानून को खारिज कर दिया था लेकिन दो दिन बाद ही राज्य सरकार नया कानून लेकर आ गई। बिहार की नीतीश सरकार ने शराबबंदी कानून में असुविधाजनक फैसलों को परे रखने का रास्ता अख्तियार किया है।
  • इसके पहले कर्नाटक सरकार ने भी कावेरी विवाद पर एक ऐसा कानून पारित करा दिया जो इस मुद्दे पर किसी भी अदालती आदेश को निरस्त करने का आदेश देता है। केरल सरकार ने भी तमिलनाडु के साथ मुल्लैपेरियार बांध को लेकर जारी विवाद से बच निकलने के लिए कानून बनाया था। 

उच्चतम न्यायालय की नाराजगी

उच्चतम न्यायालय ने अदालती आदेशों से बच निकलने के लिए इस तरह के तरीकों पर बार-बार अपनी नाराजगी जताई है। सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक का कानून निरस्त करते हुए कहा था कि 'किसी समझौते से पीछे हटने के लिए विधायी प्रक्रिया का सहारा लेना अनुचित है। विवाद पर फैसले की शक्ति को छीन लेना इस कानून का मकसद था जो एक तरह से विधायिका का न्यायिक शक्तियां हासिल करने का प्रयास माना जाएगा।

क्या क्या तरीके

  • न्यायिक आदेशों से बचने के लिए एक और तरकीब है आदेश में सुधार के लिए अर्जी दाखिल करना। आदेश में सुधार की मांग करना एक तरह से आदेश की समीक्षा की ही मांग है। दिल्ली में पुरानी डीजल कारों पर रोक के मामले में कार लॉबी ने इसी तरीके का सहारा लिया था।
  • अगर इससे भी बात नहीं बनती है तो पुनर्विचार याचिका का संवैधानिक विकल्प आजमाया जाता है और आखिर में सुधार याचिका का विकल्प तो खुला ही रहता है।
  •  वैसे इन सभी तिकड़मों की सफलता दर कम है लेकिन संबंधित पक्ष अपने लोगों को संतुष्ट करने अथवा विपक्षियों के साथ मोलभाव के मकसद से मामले को लटकाने के लिए इनका इस्तेमाल करते रहे हैं।उच्चतम न्यायालय ने अपने कई फैसलों में बार-बार समीक्षा के  अनुरोधों की आलोचना की है।
  • अगर इन तरीकों से बात नहीं बनती है तो संवैधानिक मामलों से जुड़ा मुद्दा होने का हवाला दिया जाता है ताकि मामला बड़े खंडपीठ को सौंपा जा सके। फिर कई वर्षों तक उस पीठ का गठन नहीं हो पाता है जिससे मामला लटका रहता है।

परिष्कृत तरीके

अदालती आदेशों को निष्क्रिय करने के लिए कई परिष्कृत तरीके भी आजमाये जाते हैं।

  • सरकारें अदालतों के आदेशों के क्रियान्वयन के बारे में छल-कपट से भरी जानकारी दे सकती हैं। उपेंद्र बख्शी बनाम उत्तर प्रदेश वाद पर 1981 में आया फैसला अब भी उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है जिसमें महिलाओं के पुनर्वास केंद्रों की कार्यप्रणाली को दुरुस्त करने की मांग की गई है।
  • इसी तरह से वाराणसी में शिया और सुन्नी समुदाय के बीच 136 साल से जारी कब्रिस्तान विवाद के समाधान के लिए अदालत ने 33 साल पहले कब्रों को दूसरी जगह ले जाने का आदेश दिया था।
  •  देश में पुलिस सुधारों की दिशा में ऐतिहासिक प्रकाश सिंह मामले में फैसला वर्ष 2006 में आ गया था लेकिन अब तक न तो केंद्र और न ही राज्य उसे लागू नहीं कर पाए हैं। बीच-बीच में चर्चा उठती भी है तो राज्यों में सरकारें बदल चुकी होती हैं और सरकार के पास सचिवों के तबादले जैसे तमाम बहाने होते हैं। 

क्या चाहिए

इसके लिए चाहिए की तीनो अंगो में सामंजस्य हो | अगर राज्य के ये तीनों अंग आपस में ही भिड़े हों तो संवैधानिक स्थिति बेढंगी बन सकती है। जब सरकार के इन तीनों अंगों के बीच सौजन्य और सामंजस्य होता है तो आम तौर पर संकट के गंभीर रूप अख्तियार करने के पहले ही उनका समाधान निकाल लिया जाता है। 

स्थगन आदेश देने में अदालतों को अधिक विवेक का परिचय देना चाहिए। आखिर न्याय मिलने में देरी भी तो सुचारु न्याय प्रणाली पर सवालिया निशान लगाती है। 
 

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