द इकनॉमिक टाइम्स की संपादकीय
- आदर्श रूप में देखा जाए तो राजनेताओं को धर्म या जाति के नाम पर वोट नहीं मांगने चाहिए. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का आदेश इस आदर्श से आगे जाता है. इसमें अदालत ने कहा है कि धर्म जाति या समुदाय के आधार पर वोट देने की कोई भी अपील चुनाव को भ्रष्ट करने जैसी है.
- लेकिन पहचान और राजनीति के बीच का हर घालमेल हमेशा इतना सीधा नहीं होता.
- उदाहरण के लिए एक समुदाय को लें जिसे उसकी सामूहिक पहचान के चलते सताया गया हो. मान लें कि वह समुदाय विधायिका में अपनी भागीदारी और उसके जरिये भविष्य में अपनी सुरक्षा के लिए व्यवस्था पर दबाव बनाना चाहे.
- ऐसे में उसे अपने समुदाय की मुश्किलों का हवाला देते हुए वोट मांगने होंगे. तो क्या सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उसकी इस लोकतांत्रिक कवायद को सिर्फ इसलिए गैरकानूनी बना देगा कि वह अपनी जाति या धर्म का हवाला देते हुए वोट मांग रहा है?
-धर्म और राजनीति को अलग रखने की बात करते हुए इस मामले में सात जजों की संवैधानिक पीठ ने 4-3 से फैसला सुनाया. तीन जजों का मानना था कि जाति और समुदाय पर चर्चा अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में आती है और सामाजिक सरोकारों पर विचार करने का यही अकेला जरिया है. हम भी इस नजरिये से इत्तेफाक रखते हैं. इसके कुछ और कारण भी हैं.
-ज्यादातर संस्कृतियों में धर्म ही वह धागा है जिसके जरिये नैतिकता और मूल्य सामाजिक व्यवहार में गुंथे होते हैं.
- यही वजह थी कि गांधी ने रामराज्य के लक्ष्य की बात करते हुए उन धार्मिक मुहावरों का इस्तेमाल किया जिन्हें लोग समझते हैं. धर्म का गलत इस्तेमाल न हो, इसके लिए अगर उसे राजनीति से पूरी तरह बाहर कर दिया जाएगा तो इसका नतीजा यह हो सकता है कि राजनीति से नैतिकता और मूल्यों का नाश हो जाए.
बात इतनी सी है कि लोकतंत्र की समस्याओं का समाधान सिर्फ अदालती फैसलों से नहीं हो सकता. राजनीति को अपनी समस्याएं सुलझानी होंगी- अगर संभव हो तो बातचीत से या फिर तर्क-वितर्क से और जब यह भी संभव न हो तो उन सबकों के जरिये जो तब मिलते हैं जब किसी अलोकतांत्रिक तर्क को आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक कार्रवाई का सहारा लिया जाता है और इसकी परिणिति हिंसा के रूप में होती है. अदालतों के बजाय लकीर विधायिका को खींचनी चाहिए. हालांकि सवाल यह भी है कि धर्म और राजनीति के मेल की अमूर्त जमीन पर कोई लकीर खींची भी जा सकती है या नहीं.