संसद में नियमो में बदलाव की आवश्यकता

सन्दर्भ :

संसद का हाल ही का winter session हंगामे की भेंट चढ़ गया | यह एक आम बात हो गई है जो संसद कभी 150 से 160 दिन चला करती थि वो अब घट कट 70 -80 दिन हो गई है | संसद की गरिमा बनाए रखने के लिए आवश्यक है की सेशन हंगामे की भेंट नहीं चढ़े और संसद में काम हो |

इस बार मुद्दा क्या था ?

चिर परिचित वजह रही कि विमुद्रीकरण पर बहस वोटिंग वाले नियम के तहत हो या वोटिंग के बिना। बहुत से राजनीतिक दल बहस शुरू होने के पहले ही यह बात सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि इस दौरान वोटिंग जरूर हो, क्योंकि ऐसा होने से उन्हें सरकार को शर्मिदा करने का अवसर मिल सकता है। इसी तरह सरकार ने भी दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह वोटिंग के प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तैयार नहीं होगी। दोनों ही पक्ष अपनी अपनी जिद पर अड़े रहे और शीत सत्र समाप्त हो गया।

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source: http://epaper.jagran.com/epaperimages/18122016/Delhi/17DEL-pg14-0/d630.png 

सुधार आपेक्षित :

भारतीय संसद ब्रिटिश काल के ढांचे की तर्ज पर काम कर रही है। उसके कायदे-कानून 19वीं शताब्दी के यूनाइटेड किंगडम से लिए गए हैं। इनमें से बहुत को तो खुद यूके ने भी नकार दिया है।दूसरे लोकतंत्रों, जिसमें ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं, ने महत्वपूर्ण रूप से अपनी विधायी संरचना में सुधार किए हैं। ये सुधार हमारे लिए शिक्षाप्रद हो सकते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उच्च सदन में किए गए सुधार।

क्या हो सकते है वो सुधार :

  • Agenda निर्धारण और Business Advisory committee : भारतीय संसद का एजेंडा निर्धारित करने का सर्वमान्य नियम नहीं है, बल्कि यह सहमति और विवेक के आधार पर तय होता है। हालांकि अविश्वास प्रस्ताव के मामले में नियम थोड़े स्पष्ट हैं, जिसके मुताबिक अगर कम से कम 50 सांसद यह प्रस्ताव लाना चाहते हैं तो उन्हें यह लिखित रूप में देना होता है। बाकी तमाम तरह के एजेंडे के लिए स्पीकर के विवेक का ही सहारा लिया जाता है, जिसका सीधा मतलब होता है कि इस पर बिजनेस एडवाइजरी कमेटी (बीएसी), जो सभी दलों के वरिष्ठ नेताओं की एक समिति होती है, की आम सहमति ली जाती है। इसी परंपरा को निभाते-निभाते कई दशक बीत गए और हमारी निर्भरता आम सहमति पर बढ़ती ही चली गई और वैसे भी यदि बीएसी के सदस्यों में आपसी सहमति नहीं बनती है और इन परिस्थितियों में स्पीकर अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर कोई फैसला थोपता है तो उससे विवाद बढ़ता ही है।
  • चर्चा के नियम और अस्पष्टता : लोकसभा में नियम 184 के तहत वोट के साथ चर्चा और नियम 193 के तहत बिना वोट के चर्चा का प्रावधान है, जबकि इन दोनों ही नियमों का इस्तेमाल किस स्थिति में किया जाए, इस बात के लिए कोई स्पष्ट नियम नहीं हैं और हमें घूम-फिर कर यह फैसला बीएसी की आम सहमति पर ही छोड़ना पड़ता है।
  • 21st Century can not be bounded by 20th century laws: संसद में सरकार और विपक्ष के बीच आम सहमति बनने के ऊपर कथित  शायद 19वीं या 20वीं शताब्दी में कारगर था, लेकिन आज के दौर में यह एकदम अव्यावहारिक है। हमने वेस्टमिंस्टर पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी को जिस वक्त अपनाया था उस वक्त कुछ और ही आलम था। तब देश की जनसंख्या काफी कम और संसद में गिनी-चुनी पार्टियां थीं।
  • सख्त और सिस्टम की जरुरत जैसे UK में : आज भी यूके के हाउस ऑफ कॉमंस में हमारी लोकसभा (जहां 36 पार्टियां हैं) के मुकाबले काफी कम पार्टियां हैं, लेकिन उनके यहां और हमारे यहां संसद में पार्टियों की तादाद कितनी है, इससे बड़ा तथ्य यह है कि आधुनिक लोकतंत्र में नियम काफी सख्त और सिस्टम पर आधारित हैं जिसमें सहमति या विवेक पर आधारित निर्णय की गुंजाइश बहुत कम बचती है। ये नियम हर तरह की चर्चा को, चाहे वह वोटिंग के आधार पर हो या नॉन वोटिंग के आधार पर, एक धरातल पर लाने में कामयाब होते हैं। आज के दौर में हमारी संसद को भी इसी तरह के नियम बनाने चाहिए।
  • सबसे पहले वोटिंग और नॉन वोटिंग चर्चा के लिए दो गैरविवेकाधीन नियम पेश किए जाने चाहिए। अगर 50 सांसदों के हस्ताक्षर हों तो नॉन वोटिंग चर्चा हो और अगर 100 के हस्ताक्षर हों तो वोटिंग वाले नियम के तहत चर्चा होनी चाहिए।
  • इस तरह का नियम बनाने से हम आम सहमति जैसे अव्यावहारिक फामरूले पर भरोसा करने के बजाय स्पष्ट तौर पर एजेंडा निर्धारित कर सकते हैं।
  • अविश्वास प्रस्ताव पारित करने के लिए हस्ताक्षर करने वाले सांसदों की संख्या 50 से बढ़ाकर 150 कर देनी चाहिए, क्योंकि यह कोई साधारण प्रस्ताव नहीं होता और इसे पारित करने के लिए लोकसभा के 543 सदस्यों में से 272 की सहमति प्राप्त होनी चाहिए।
  • ये नियम बहुत से जरूरी मुद्दों पर चर्चा को एक अन्य स्तर की ऊंचाई पर ले जाने की क्षमता रखते हैं।
  • संसद के हर सत्र में कुछ दिन विपक्ष की पसंद के मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए। यह नियम हाल में ब्रिटेन ने भी अपनाया है। सभी विपक्षी सांसदों के एक समूह को ऐसे दिनों के चुनाव के लिए एजेंडा निर्धारित करना चाहिए। ताकि विपक्ष की आवाज को भी सूना जा सके
  •  संसद में हंगामा करने वाले सांसदों को अनुशासित करने या उन पर कार्रवाई के लिए नियम स्पीकर के विवेक के बजाय लिखित में होने चाहिए, क्योकि स्पीकर के पास हंगामा करने वाले सांसदों को संसद से बाहर निकालने का विशेषाधिकार प्राप्त होने और अच्छे व्यवहार को लेकर बहुत से सर्वदलीय प्रस्ताव होने के बाद भी जब स्पीकर सचमुच इसका इस्तेमाल करते हैं तब उन्हें सांसदों की आलोचना का शिकार होना पड़ता है।
  • साधारण और स्पष्ट नियम बनाने से बात बन सकती है, जिसके मुताबिक यदि सांसद एक बार हंगामा करे तो एक दिन के लिए तथा दूसरी बार हंगामा करने पर पूरे सत्र से स्वत: ही बाहर कर दिया जाए। इससे संसद की गरिमा लंबे समय तक बनी रहेगी। यह नियम तो पहले से ही कई राज्य विधानसभाओं में अवरोधों को हल करने के तरीके के रूप में रखा जा चुका है और कुछ पीठासीन अधिकारियों ने इसका पक्ष भी लिया है। इस नियम को लागू करने से अध्यक्ष शर्मिदगी से भी बच जाएंगे और अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल दूसरे मुद्दों को हल करने में कर पाएंगे।

conclusion

बिना परिवर्तनों को लाए हुए विपक्षी दलों से केवल उम्मीद ही की जा सकती है कि वे आने वाले समय में अगर कानूनन अपना पक्ष रखने में कामयाब न हुए तो हंगामा नहीं करेंगे और ऐसे में स्वाभाविक है कि जिस पार्टी की सरकार है वह नियमित तौर पर बीएसी में किसी भी चुनौतीपूर्ण मुद्दे पर आम सहमति की प्रक्रिया से इंकार करेगी और कम विवादस्पद मुद्दों को ही उठाएगी। जब तक हम इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर लेते कि पुराने पड़ चुके आम सहमति पर आधारित नियमों को बदलने की जरूरत है तब तक हम इसी हंगामे के चक्र में गोल-गोल घूमते रहेंगे और बार-बार संसद बाधित होती रहेगी

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