संसदीय समितियों की कार्यप्रणाली पर सवाल

क्यों खबरों में यह :

  • संसद की लोक लेखा समिति के वर्तमान अध्यक्ष केवी थॉमस ने एक बयान में कहा था कि नोटबंदी के मामले में वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साक्ष्य के लिए तलब कर सकते हैं। उन्होंने यह भी दावा किया था कि समिति को ऐसा करने का अधिकार है। लोक लेखा समिति में मौजूद भाजपा नेताओं ने अध्यक्ष की इस ‘असंसदीय’ अभिव्यक्ति का विरोध किया था।
  • लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन ने स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी संसदीय समिति में साक्ष्य हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री को नहीं बुलाया जा सकता।

क्या पहले कभी ऐसा हुआ

प्रधानमंत्री या किसी मंत्री को साक्ष्य के लिए तलब करने की चर्चा पहली बार उस समय हुई थी जब भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी उसके अध्यक्ष थे। कोयला घोटाले में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को तलब किए जाने की संभावना व्यक्त की थी और डॉ. मनमोहन सिंह उपस्थित होने के लिए भी तैयार थे, लेकिन संसदीय व्यवस्था के प्रावधानों के कारण यह चर्चा एक दो अभिव्यक्ति के बाद तिरोहित हो गई थी। लोकसभा अध्यक्ष को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ा था।

समितियों की संसद में महत्ता

  • संसद की कार्यपद्धति में समितियों की अत्यधिक महत्ता है। संसद के दोनों सदनों में सभी विभागों के लिए बजट अनुमान पेश किया जाता है, लेकिन उसकी समीक्षा समितियों में होती है। संसद में कुछ ही विभागों के बजट की चर्चा होती है।

संसदीय समितियों की कार्यप्रणाली

संसदीय समितियों की कार्यप्रणाली बहुत स्पष्ट है। समितियां विभिन्न मंत्रलयों के नीतिगत और वित्तीय फैसलों पर अमल की समीक्षा करती हैं। इसलिए समिति के सामने साक्ष्य के लिए अमल करने का जिन पर दायित्व है अर्थात नौकरशाही उसी के प्रतिनिधि बुलाए जाते हैं। हालांकि कभी-कभी कुछ विधेयकों, कुछ संगठनों के प्रतिनिधियों तथा विशेषज्ञों को भी आमंत्रित किया जाता है। संसद के इतिहास में ही नहीं राज्यों में भी कभी किसी मंत्री को समितियों में साक्ष्य देने या पक्ष रखने के लिए तलब नहीं किया गया है। विभिन्न दलों के सदस्य पार्टी लाइन से अलग हटकर औचित्य के आधार पर तर्क देते हैं।

समितियों की बैठक में कोई मंत्री नहीं आता, क्योंकि बजट प्रावधानों के क्रियान्वयन का दायित्व नौकरशाही पर होता है। इसलिए विभागीय सचिव और उनके सहयोगी ही प्रावधानों के उपयोग के औचित्य के संदर्भ में जवाब देने के लिए बुलाए जाते हैं।

कुछ सवाल :

  • इस समिति की कार्यवाही गोपनीय है। इसमें दिए गए मौखिक साक्ष्य या लिखित प्रतिवेदन को तब तक सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि समिति का प्रतिवेदन संसद के पटल पर न रखा जाए। ऐसा करना संसदीय अवमानना होगी।
  • पिछले कुछ वर्षो से समिति की बैठक में चर्चा, झड़प, दाखिल किए गए दस्तावेज यहां तक कि सदस्यों की प्रतिक्रिया और उस पर टिप्पणियों का भी प्रकाशन समाचार पत्रों में होने लगा है। अभी पिछले दिनों एक समाचार पत्र ने पूरे एक पृष्ठ में रिजर्व बैंक द्वारा नोटबंदी के संदर्भ में लोक लेखा समिति को दिए गए प्रतिवेदन को प्रकाशित किया था।
  • जिस प्रकार से संसद की मर्यादा का क्षरण करने की प्रवृत्ति हावी होती जा रही है, उससे नियमावली में लिखित यह प्रावधान निर्थक हो गया है कि सदन की कार्यवाही में बाधा डालना या किसी सदस्य की अभिव्यक्ति में बाधक बनना सदन की अवमानना है
  •  अवमानना पर दंड का भी प्रावधान है, लेकिन अवमानना करने वालों को दंडित करने के बजाय सदन की कार्यवाही को स्थगित करना भर विकल्प बनकर रह गया है। 
  • संसदीय समितियों में सबसे महत्वपूर्ण लोक लेखा समिति होती है जो सरकार के वित्तीय फैसलों के क्रियान्वयन की समीक्षा करती है। पहले अनिवार्य रूप से मुख्य विपक्षी दल का नेता इसका सभापति होता था फिर उसका प्रतिनिधि होने लगा है। सरकार के कामकाज की समीक्षा के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण समिति है, लेकिन संसद के समान अब यह समिति भी राजनीतिक राग-द्वेष में टांग खिंचाई का अखाड़ा बनकर अपना औचित्य खोने की ओर बढ़ती जा रही है।
  • संसदीय मर्यादा और उसके विशेषाधिकार में भले ही सर्वोच्च न्यायालय न हस्तक्षेप करे, लेकिन सांसद या विधायक जिस ढंग से अवहेलना की दिशा में बढ़ते जा रहे हैं वह लोकतंत्र की इस सबसे बड़ी संस्था के प्रति लोगों में विपरीत भावनाओं को बढ़ाने का काम कर रही है।

संसद में पेश किया जाने वाला विधेयक समीक्षा के लिए समिति के सुपुर्द कर दिया जाता है। समिति की समीक्षा और सुझाए गए संशोधनों को शामिल कर विधेयक पुन: संसद में आता है। यदि इन समितियों को भी संसद के समान राजनीतिक हानि-लाभ का अखाड़ा बना दिया जाएगा, तो शायद ही कोई विधेयक पारित हो सकेगा। 

 

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