मुख्य न्यायाधीशों का संक्षिप्त कार्यकाल

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इस साल देश को तीन मुख्य न्यायाधीश मिले हैं। कुछ मुख्य न्यायाधीशों का कार्यकाल तो महज 41, 35 और 17 दिन का भी रहा है। वहीं एक मुख्य न्यायाधीश सात साल से भी अधिक समय तक अपने पद पर रहे।
स्थापित परंपरा के मुताबिक :

उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाता है और इस दौरान यह नहीं देखा जाता कि उस न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति में कितना समय बाकी है। विभिन्न न्यायविदों ने सुझाव दिया है कि मुख्य न्यायाधीश के लिए भी एक लंबा कार्यकाल सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि वह न्यायपालिका को समुचित दिशानिर्देश दे सके।

 लेकिन इस विचार के कुछ अपने जोखिम भी हैं।

  • अगर किसी कनिष्ठ न्यायाधीश का लंबा कार्यकाल बचा हुआ हो और उसे पदोन्नत कर मुख्य न्यायाधीश बना दिया जाए तो उससे वरिष्ठ न्यायाधीश काफी नाखुश हो जाएंगे। इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते समय मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति के समय दो बार वरिष्ठतम न्यायाधीश की वरिष्ठïता का उल्लंघन किया था। लेकिन इंदिरा के उस फैसले के पीछे लंबे कार्यकाल का सिद्धांत होकर यह धारणा काम कर रही थी कि न्यायाधीशों को तत्कालीन सरकार के आर्थिक एवं सामाजिक दर्शन के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए।
  • हरेक सरकार की ही यह चाहत रही है कि उनके हमकदम लोग न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठें लेकिन इंदिरा सरकार के उन फैसलों के अरुचिकर नतीजों को देखने के बाद फिर किसी सरकार ने अपनी अंगुलियां जलाने की कोशिश नहीं की।

Law commissions view

  • मुख्य न्यायाधीशों का कार्यकाल दो साल के लिए तय कर दिया जाए।
  • आयोग के मुताबिक इस सुझाव को वर्ष 2022 से अमल में लाया जा सकता है क्योंकि मौजूदा दौर के सबसे कनिष्ठ न्यायाधीश भी उस समय तक मुख्य न्यायाधीश बनकर सेवानिवृत्त हो जाएंगे। इससे मौजूदा न्यायाधीशों के वरिष्ठता पदानुक्रम को भी ठेस नहीं पहुंचेगी।
  • सरकार ने भी एक विचार पेश किया है जिसमें मुख्य न्यायाधीश को कम से कम एक साल का कार्यकाल देने का प्रस्ताव है।
  • आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1997 से अब तक बने 17 मुख्य न्यायाधीशों में से केवल तीन का ही कार्यकाल दो साल से अधिक रहा है। इसका मतलब है कि कम समय तक अपने पद पर रहने से उन्हें दीर्घकालिक फैसलों को लागू करने का वक्त ही नहीं मिल पाता है।

Patch in this scheme

अगर यह योजना अमल में आती है तो सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक और शर्त मिल जाएगी। नियुक्ति के समय कैलेंडर यह बता देगा कि वह न्यायाधीश आगे चलकर मुख्य न्यायाधीश बन पाएगा या नहीं। दो साल का न्यूनतम कार्यकाल एक अतिरिक्त कारक होगा। पहले से ही भाषा, भूगोल, धर्म, जाति और लिंग के आधार पर प्रतिनिधित्व जैसे कारकों के साथ निश्चित कार्यकाल भी एक कारक हो जाएगा। लेकिन इससे न्यायाधीश की चयन प्रक्रिया केवल जटिल हो जाएगी बल्कि कॉलेजियम प्रणाली में भी अंतर्विरोध पैदा हो सकते हैं।

  • न्यायाधीशों के चयन के कुछ अघोषित मानदंड भी हैं, जैसे उम्मीदवार की वैचारिक पृष्ठभूमि। जब वी आर कृष्ण अय्यर का नाम इस पद के लिए सामने आया था तो उनकी साम्यवादी पृष्ठभूमि को लेकर काफी विरोध हुआ था। आधार के इस दौर में फैसलों की छानबीन कर पाना मुमकिन है और किसी न्यायाधीश के राजनीतिक एवं सामाजिक दर्शन को भी पता लगाया जा सकता है। अमेरिका में कानूनी पेशा और मीडिया न्यायाधीशों को रूढि़वादी, उदार, सकारात्मक और अन्य रंगों में पेश करने का आदी रहा है। लेकिन अपने देश में न्यायाधीशों को इस तरह के चश्मे से देखने से परहेज किया जाता रहा है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल छोटे रहे हैं जिसके चलते उनके पास न्यायपालिका पर अपनी खास छाप छोडऩे का मौका ही नहीं मिल पाता है।
  • हालांकि लंबे कार्यकाल वाले न्यायाधीशों से कुछ ठोस सुधार लागू कर पाने की उम्मीद करना थोड़ा आकांक्षापूर्ण हो सकता है। पहले कुछ ऐसे न्यायाधीश रहे हैं जो लंबा कार्यकाल होते हुए भी कोई बड़ा बदलाव नहीं कर पाए हैं। सच तो यह है कि अब तक हुए 44 मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में न्यायिक प्रणाली का लगातार पराभव ही हुआ है। अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती गई है, अदालतों को डिजिटल करने का लक्ष्य काफी पीछे चल रहा है और अदालतों के भीतर भीड़भाड़ देखकर किसी मछली बाजार की याद आती है।

Judicial work and neglect of Administrative work

अधिकतर मुख्य न्यायाधीश अपने न्यायिक कार्यों में ही लगे रहे हैं और न्यायपालिका के प्रशासन पर उनका जोर नहीं रहा है। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहड़ को अपने सीमित कार्यकाल में कार्यपालिका के दबावों के आगे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बचाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ा है। नए मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा को भी अपने एक साल के कार्यकाल में अयोध्या जैसे कई संवेदनशील मामलों से निपटना होगा। उन्हें सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने को अनिवार्य करने के अपने फैसले के चलते काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। आपराधिक मानहानि के प्रावधान को वैध ठहराने, मॉरल पुलिसिंग को बढ़ावा देने वाला अश्लीलता संबंधी फैसला देने और बॉलीवुड के केवल पुरुष मेकअप कलाकारों को ही उनके संगठन का सदस्य बनने वाला लैंगिक फैसला देने को लेकर उन्हें आलोचाएं भी झेलनी पड़ी हैं। निंदक आगे भी उनके फैसलों की आलोचना कर सकते हैं और मौजूदा दौर की प्रचलित रवायत के अनुरूप चलने का आरोप लगा सकते हैं। फिलहाल तो हम उनके फैसलों में लिखे कुछ बेहद लंबे वाक्यों और पहेलीनुमा संदेशों को पढ़ते हुए आश्वस्त हो सकते हैं।

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