- सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टो में रिक्त पदों को भरे जाने में विलंब पर कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी संसद की स्थायी समिति ने कहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति वास्तव में कार्यपालिका का काम है।
- न्यायपालिका की भूमिका उसमें सिर्फ परामर्श तक ही सीमित है।
- समिति ने नियुक्ति व्यवस्था में न्यायपालिका को एकाधिकार देने वाले फैसलों को पलटे जाने और इसके लिए सरकार को उचित कदम उठाने की सलाह भी दी है।
- कहा है कि कई बार मुख्य न्यायाधीश बहुत कम अवधि के लिए तैनात होते हैं, ऐसे में उनका कार्यकाल भी तय किया जाना चाहिए।
- समिति ने न्यायाधीशों के खाली पड़े पदों पर चिंता जताते हुए सरकार और न्यायपालिका से जनहित में इन्हें जल्दी भरे जाने पर जोर दिया है।
- समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के जरूरी काम में आता है और कार्यपालिका न्यायपालिका से परामर्श कर इसे अंजाम देती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका से परामर्श या न्यायपालिका की सहमति जरूरी होगी
- समिति का कहना है कि संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर सहमति (कंकरेंस) की जगह परामर्श (कन्सल्टेशन) शब्द का इस्तेमाल किया है। समिति ने सिफारिश की है कि ऐसे में संविधान के मूल भाव को बदलने वाले सुप्रीम कोर्ट के सेकेंड जजेस केस व अन्य फैसलों को पलटा जाना चाहिए और संविधान की पूर्व स्थिति कायम की जानी चाहिए। इसके लिए सरकार उचित कदम उठा सकती है।
- संविधान के 99वें संशोधन और एनजेएसी (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) के जरिए न्यायाधीशों की नियुक्ति की नई व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों के 4-1 के बहुमत से खारिज करने का हवाला देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि 99वां संविधान संशोधन लोकसभा में एकमत से और राज्यसभा में भी सिर्फ एक ही असहमति थी इसलिए वहां भी लगभग एकमत से पास हुआ था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। समिति का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में इस समय न्यायाधीशों के कुल 31 मंजूर पद हैं ऐसे में संविधान संशोधन से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट की कम से कम 11 न्यायाधीशों की पीठ को विचार करना चाहिए। जबकि संवैधानिक व्याख्या से जुड़े मुद्दों पर कम से कम सात न्यायाधीशों की पीठ को सुनवाई करनी चाहिए।