2 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुलिस सुधार संबंधी निर्णय दिए हुए दस वर्ष पूरे हो रहे हैं। देश की सर्वोच्च अदालत ने जब इस संबंध में निर्देश दिए थे तो लगा था कि जल्द ही पुलिस की कार्यशैली बदल जाएगी और उसके चलते उसकी छवि भी सुधर जाएगी।
=> पुलिस सुधार (police reform) कहाँ तक बढे?
★दुर्भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सच तो यह है कि पुलिस के काम में और गिरावट आई है। बीते दस वर्षो में पुलिस का राजनीतिकरण और बढ़ा है। इसके साथ ही प्रशासनिक तंत्र की आपराधिक तत्वों से गठजोड़ में भी वृद्धि हुई है। इस गठजोड़ के बारे में वोहरा समिति ने 1993 में ही आगाह किया था।
◆यदि इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो 1902 में लॉर्ड कर्जन द्वारा गठित पुलिस कमीशन ने कहा था कि पुलिस को एक भ्रष्ट और दमनकारी संस्था के रूप में देखा जाता है और संपूर्ण देश में उसकी हालत अत्यंत असंतोषजनक है।
◆ कमीशन ने यह भी कहा था कि पुलिस में सुधार की तत्काल आवश्यकता है। 114 साल पहले की गई यह टिप्पणी ऐसी है कि लगता है आज-कल में ही किसी विशेषज्ञ ने की है। इतने सालों में पुलिस में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन और सुधार नहीं हुआ।
◆राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने 1979 से 1981 के बीच आठ विस्तृत रिपोर्ट दीं। पुलिस के कार्यकलाप का इतना विशद एवं समग्रता से पहले कभी परीक्षण नहीं हुआ।
◆ 1996 में सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधार हेतु एक जनहित याचिका दाखिल की गई। दस वर्ष बाद 22 सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया।
◆सुप्रीम कोर्ट अपने निर्देशों के अनुपालन की निगरानी खुद कर रहा है, फिर भी राज्य सरकारों की हीलाहवाली बरकरार है। 1इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि 17 राज्यों ने अपने नए पुलिस अधिनियम बना लिए हैं, क्योंकि ये अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का अनुपालन करने के लिए नहीं, बल्कि उनसे बचने के लिए बनाए गए हैं।
=> क्या था 2006 में आया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय :-
- 2006 के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जो निर्देश जारी किए जा रहे हैं वे तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक केंद्र और राज्य सरकारें इस विषय पर अपना अधिनियम नहीं बना लेतीं।
- चालाक नेताओं ने इस फैसले से बचने के लिए ऐसे अधिनियम बनाए जो वर्तमान व्यवस्था को ही कानूनी जामा पहनाने के समान हैं। अन्य राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पालन का दिखावा करते हुए जो शासनादेश पारित किए उनसे यही स्पष्ट होता है कि या तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को संशोधित किया गया या उसे तोड़मरोड़कर उसके प्रभाव को कम किया गया।
- 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस थॉमस समिति का गठन किया कि वह उसके फैसले के अनुपालन पर अपनी आख्या दे। इस समिति ने 2010 में अपनी रिपोर्ट में हैरत प्रकट करते हुए कहा कि सभी राज्यों में पुलिस सुधारों के प्रति उदासीनता है।
- 2013 में पुलिस सुधारों को लेकर जस्टिस वर्मा समिति ने भी विस्तृत टिप्पणी की। इस समिति का गठन दिल्ली में निर्भया कांड के बाद महिलाओं के प्रति अपराध संबंधी कानूनों को सख्त बनाने के लिए किया गया था। समिति ने स्पष्ट कहा था कि पुलिस में बुनियादी सुधारों के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का अनुपालन अत्यंत आवश्यक है।
- जस्टिस थॉमस समिति द्वारा निराशा व्यक्त करने और जस्टिस वर्मा समिति द्वारा कोर्ट के आदेशों के अनुपालन को जरूरी बताने का राज्यों पर कोई असर नहीं हुआ। इसकी एक बानगी यह रही कि उत्तर प्रदेश में मनमाने ढंग से महानिदेशकों की नियुक्ति अल्पअवधि और यहां तक कि दो-तीन महीने के लिए की गई।
Conclusion:
- राज्य सरकारों और साथ ही देश के नेतृत्व को यह समझना होगा कि आधुनिक एवं प्रगतिशील भारत के निर्माण और विधि के शासन के लिए पुलिस सुधार आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य हैं।
- इन सुधारों से पुलिस की कार्यशैली स्वच्छ और प्रभावी होगी, अधिकारियों की नियुक्ति में पारदर्शिता होगी, मानवाधिकारों का संरक्षण होगा और देश में कानून का राज होगा। आज हम एक सामंतवादी पुलिस की जकड़ में हैं। आवश्यकता है एक ऐसे पुलिस की जो जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझें और प्रतिदिन के कार्यो में कानून को लागू करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दे।