- रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने ले. जनरल डीबी शेखावत के नेतृत्व में एक 12-सदस्यीय समिति का गठन किया है जो थल, वायु और नौसेना के मौजूदा ताने-बाने में बदलाव लाने के लिए अपने सुझाव देगी और फालतू तंत्र की कांट-छांट करने के साथ-साथ रखरखाव के खर्चे को कम करने के उपाय सुझाएगी।
- समिति की सिफारिशों से उन पदों को समाप्त किया जा सकेगा जो तकनीकी उन्नति के चलते अब बेमानी हो चुके हैं। समिति यह भी सुनिश्चित करेगी कि आधुनिकीकरण करने का यह मतलब नहीं कि सुरक्षा सैनिकों की गिनती में भी इजाफा किया जाए।
- इस सोच के पीछे सरकार के पास दो मुख्य कारण थे।
- एक है सैनिकों की तनख्वाह और रखरखाव के खर्च में लगातार वृद्धि। इससे कुल रक्षा बजट का 20 फीसदी से भी कम हिस्सा हथियारों और उपकरणों के आधुनिकीकरण के लिए बचता है।
- दूसरा कारण है दिसंबर 2015 में सेना के सम्मिलित कमांडर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह सुझाव, जिसमें उन्होंने कहा था कि ऐसे वक्त में जहां दुनिया की अन्य मुख्य ताकतें अपनी सेना की संख्या में कटौती कर रही हैं और तकनीक पर ज्यादा निर्भरता ला रही हैं वहीं हम आज भी अपनी फौज की संख्या बढ़ाने पर लगातार जोर दे रहे हैं।
- प्रधानमंत्री ने रक्षा मंत्री और सैन्य कमांडरों से आह्वान किया था कि वे सभी स्तरों पर एक सम्मिलित रक्षा तंत्र की भांति काम करें ताकि मौजूदा सैनिक-अनुपात को कम करने के अलावा यह सुनिश्चित किया जाए कि स्टॉक जमा करने हेतु जिस भारी फंड की जरूरत पड़ती है, उसमें भी कटौती की जा सके।
दरअसल उपरोक्त निर्णय लेने की वजह रक्षा बजट में उपलब्ध पैसे की कमी है। पिछले एक दशक से रक्षा बजट में कुल सकल उत्पादन का प्रतिशत घटता ही जा रहा है। हालांकि इस साल 2015-16 के वित्त वर्ष के लिए तय किए गए बजट प्रावधानों के मुकाबले रक्षा बजट में 1.16 प्रतिशत की वृद्धि की गई है, लेकिन यदि इनमें रक्षा मंत्रालय द्वारा लौटाए गए 18,295 करोड़ रुपयों को भी गिन लें तो रकम में यह इजाफा लगभग 9 प्रतिशत बैठता है। यहां पर पेच यह है कि इस पैसे में मुद्रास्फीति, डॉलर के मुकाबले रुपए का अवमूल्यन और हथियारों एवं उपकरणों की कीमतों में बेतहाशा वैश्विक वृद्धि शामिल नहीं है।
- ‘एक रैंक-समान पेंशन’ योजना पर क्रियान्वयन के चलते सेनानिवृत्त सैनिकों के पेंशन भुगतान मद में काफी इजाफा हो जाएगा। इसके अलावा सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक सैनिकों की तनख्वाह, और भत्तों का भुगतान रक्षा बजट से किए जाने से सैन्य और सिविल संस्थागत खर्चे में बहुत इजाफा हो जाएगा।
- 1990 के दशक में हमें इसी तरह के हालात का सामना करना पड़ा था। तब सेनाध्यक्ष होने के नाते मैंने तीन साल के दौरान सैनिकों की कुल संख्या में 50,000 कर्मियों (जिनमें अधिकांश गैर-लड़ाकू बल से संबंधित थे) की कटौती की थी, बशर्ते कि इसकी एवज में बचाए गए पैसे को सेना को नई खरीद के लिए आरक्षित किया जाए। हालांकि उस वक्त सेना के अंदर और बाहर इस निर्णय की काफी मुखालफत हुई थी। हम इस योजना को अमलीजामा पहनाने में सफल हुए थे परंतु इस परियोजना के तीसरे साल में हुए कारगिल युद्ध ने इस पर विराम लगा दिया था।
- आज भारतीय सेना 38,000 अधिकारियों (वैसे इनकी कुल प्रस्तावित संख्या 49,631 है) और 11.38 लाख सैनिकों के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी फौज है। विभिन्न काडरों के पुन:अवलोकन और संचालन हेतु आई अजीत विक्रम सिंह रिपोर्ट लागू होने से सेना में आधार के मुकाबले ऊपरी ढांचा ज्यादा भारी हो गया और इसका हश्र यह हुआ कि धरातल पर काम करने वालों के बनिस्पत मुख्यालय में बैठने वाले अधिकारियों की संख्या में काफी इजाफा हो गया। जाहिर है ऐसी व्यवस्था त्वरित और छोटे अंतराल के युद्ध जीतने के लिए बने आधुनिक रक्षा प्रबंधन के अनुरूप नहीं है।
- पिछले एक दशक में दुनिया की सभी मुख्य ताकतों ने इस प्रकार की कवायद करने का यत्न किया है और अपने सैनिकों की संख्या में भारी कमी की है। वर्ष 2012 में ब्रिटेन ने अपने सैनिकों की कुल संख्या में 20 प्रतिशत कटौती करने की घोषणा की थी। रूस की सेना ने भी अपने बड़े डिवीजनल हेडक्वार्टर आधारित सैन्य व्यवस्था में कटौती लागू कर इन्हें त्वरित-प्रतिक्रिया और छोटे बलों में परिवर्तित कर दिया है। अमेरिका की सेना ने भी 2017 तक कुल 80,000 सैनिकों की गिनती कम करने का फैसला लिया है।
- चीन ने हाल ही में अपने सैन्य प्रणाली सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत वर्ष 2020 तक 3,00,000 फौजियों की कमी लाने का लक्ष्य रखा है। इसके पीछे मंतव्य यह है कि पीएलए का पुनर्गठन करते हुए नवीनतम तकनीक से लैस चल-सेना में तबदील करना।
- पिछले एक दशक में भारत ने भी अपनी सैन्य क्षमता में बड़े पैमाने पर तकनीक आधारित प्रणालियों का समावेश किया है, जिसमें संचार और डिजिटलकरण भी शामिल है। अब हमारे नए सैनिक ज्यादा पढ़े-लिखे और कम्प्यूटर एवं स्मार्ट फोन जैसे आधुनिक यंत्र चलाने में माहिर हैं। इनमें अधिकांश के पास वाहन चलाने का लाइसेंस भी है।
- मगर सेना ने शायद ही कभी संस्थागत सुधारों, गैर उपयोगी विभागों और मानवीय संसाधनों पर होने वाले खर्च में कटौती करने का कोई प्रयास किया होगा। इसी बीच, वे सैन्य विभाग जो परिचालन के हिसाब से इतने जरूरी नहीं हैं, उनमें नियुक्तियों की संख्या में कटौती की जानी चाहिए ताकि खर्च में कमी लाई जा सके। इसके लिए निम्न सुझाव हैं: सेना के सभी अंगों में सम्मिलित-अभियान-तालमेल में सुधार लाना ताकि किसी मोर्चे पर दोहरे-तिहरे प्रयास से बचा जाए और प्रत्येक यूनिट के मेडिकल, राशन, स्टेशन डयूटी और अन्य सुरक्षा संबंधी खर्चों में कमी लाई जा सके। हेडक्वार्टर्स खासकर फील्ड फॉर्मेशन,
- प्रशिक्षण संस्थाएं और बेमानी पड़ चुकी संस्थाओं के मुख्यालय आकार में कमी की जाए। प्रचालन-तंत्र और प्रशिक्षण सुविधाएं जैसे कि ईएमई, ऑर्डेनेंस, आर्मी सर्विस कोर, आर्मी एजूकेशन कोर इत्यादि में कई विभागों का विलय और इनके आकार में छंटाई की जाए। गैर-जरूरी संस्थाएं जैसे आर्मी फार्म्स, आर्मी पोस्टल सर्विस का विलय या फिर इनका काम ठेके पर बाहरी क्षेत्र से करवाया जाए। सभी शांतिकालीन संस्थाओं का पुन:आकलन। भूमि या ऐसी सुविधाएं जो भले ही किसी भी यूनिट या फॉर्मेशन के अंतर्गत हों, उनका बहुउद्देशीय इस्तेमाल किया जाए।
- इन दिनों सीमा तक सटे क्षेत्रों में भी ऑटोमोबाइल और सिविलियन कार्यों का रखरखाव एवं मरम्मत तंत्र काफी विकसित और सदैव उपलब्ध है। जरूरत पड़ने पर सेना ठेके पर इनकी जिम्मेवारी निजी क्षेत्र को दे सकती है, विशेषकर माल ढुलाई में और यदि सीधे वाहन निर्माता को इस कार्य में सम्मिलित कर पाए तो भी ज्यादा बेहतर होगा।