झूठ के जाल में उलझता जा रहा सोशल मीडिया

#Editorial_Business_Standard

क्या तकनीक से जुड़ी कंपनियों और प्लेटफॉर्मों की वजह से फैलने वाली नफरत और झूठी खबरों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? कभी-कभार इस पर सांसदों और मंत्रियों तक की तरफ से ऐसे बयान पढऩे को मिलते हैं जो लोगों को हिंसा के लिए उकसाते हैं।

Ø  यहां हिंसा को प्रश्रय देने वाली अश्लील और अपमानजनक टिप्पणियां दिखाई देती हैं जिनके निशाने पर खास तौर पर महिला पत्रकार होती हैं।

Ø  फेसबुक पर अक्सर आपका कोई दोस्त या सहयोगी अपनी मनमर्जी से नापसंदगी जताता है, हिंसा का या तो समर्थन करता है या फिर उसे बढ़ावा देने की बात करता है और धर्म या राष्ट्रवाद के नाम पर दूसरे लोगों की प्रताडऩा को सही ठहराता है।

Ø  ऐसा नहीं है कि ऐसा केवल भारत में ही हो रहा है। दुनिया भर में लोग घृणा और द्वेष के समंदर में गोते लगाने के लिए मजबूर हैं। आप यह कह सकते हैं कि नफरत और संघर्ष तो मानव जाति के विकास का अभिन्न अंग रहा है लिहाजा तकनीक या सोशल मीडिया को ही इसके लिए कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?

 Answer to this:

Ø  इसका जवाब यह है कि मास मीडिया की ही तरह सोशल मीडिया के पास भी किसी संदेश को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की ताकत है। लेकिन दोनों के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि मास मीडिया तो मानहानि और परिवाद संबंधी कानूनों से नियंत्रित होता है ताकि इसे अपनी ताकत का दुरुपयोग करने से रोका जा सके। लेकिन सोशल मीडिया पर किसी को भी किसी के भी बारे में कोई भी तथ्य पेश करने से रोकने वाला नदारद है।

भारत में पिछले दिनों भीड़ द्वारा निर्दोष लोगों को पीट-पीटकर मार देने, दंगा भड़काने और तनाव फैलाने की कई घटनाओं के पीछे इसी तरह के फर्जी वीडियो या व्हाट्सऐप संदेशों की प्रमुख भूमिका रही है। अगर स्टार, ज़ी, एनडीटीवी या द इंडियन एक्सप्रेस जैसे मीडिया संगठन प्रेस कानूनों के प्रति जवाबदेह हैं तो क्या गूगल, व्हाट्सऐप और अन्य सोशल मीडिया मंचों को भी उसके दायरे में लाना चाहिए? इस लेख में उठाए जा रहे सवाल पर सबसे पहले इसी बिंदु पर गौर किया जाना चाहिए।

Ø  दूसरा बिंदु यह है कि क्या मीडिया प्लेटफॉर्म और टेक कंपनियों को सामग्री संपादित करनी चाहिए? न्यूयॉर्क में पत्रकारिता के शिक्षक प्रोफेसर जेफ जार्विस कहते हैं कि 'इंटरनेट अमेरिकी संविधान के तहत वजूद में आया पहला संशोधन है।' स्वतंत्र वेब के समर्थक जार्विस कहते हैं, 'स्वतंत्र अभिव्यक्ति के साथ बुरी बातें भी आती हैं। स्वतंत्र अभिव्यक्ति में संपादन का अधिकार भी निहित है। हालांकि ट्विटर की खासियत इसका खुलापन है और यही वजह है कि वह संपादन करने का इच्छुक नहीं है। अगर हम नहीं चाहते हैं कि सोशल मीडिया सामग्री को संपादित करे तो हमें शिष्टता के मानक बनाने होंगे।' प्रोफेसर जार्विस का यह कहना एकदम सही है कि इंटरनेट या सोशल प्लेटफॉर्म के नियमन की किसी भी कोशिश में स्वतंत्र अभिव्यक्ति और निजता दोनों ही शिकार होंगे।

How companies are responding:

हालांकि गूगल, फेसबुक या ट्विटर हमारी पोस्ट या शेयरिंग पर लगातार नजर रखते हैं और वे इस काम को बखूबी अंजाम देते हैं। होल्डिंग कंपनी अल्फाबेट के तहत संचालित गूगल दुनिया का सबसे बड़ा मीडिया समूह है। जेनिथ मीडिया के मुताबिक वर्ष 2016 में गूगल ने विज्ञापनों के जरिये 79.4 अरब डॉलर का राजस्व जुटाया था। विज्ञापनों से कमाई के मामले में फेसबुक दूसरे स्थान पर है। झूठ के कारोबार में बेशुमार पैसा है और तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एवं सामग्री निर्माता इससे लाभान्वित होते हैं।

जेस्टिन कोलर के केस पर गौर कीजिए। कोलर ने वर्ष 2013 में झूठी खबरों को लिखना शुरू किया था। दक्षिणपंथी रुझान वाली सैकड़ों वेबसाइट उसकी इन झूठी कहानियों को खुशी-खुशी लगाती रहीं और लोगों के बीच फैलाती रहीं। कोलर ने नैशनलरिपोर्ट डॉट नेट जैसी कुछ वेबसाइट भी बनाईं जिनके 10 करोड़ वेब पेज लोगों ने देखे। इन वेबसाइट पर अमूमन राजनीतिक मुद्दों पर पूरी तरह मनगढ़ंत और गलत खबरें ही देखने को मिलती थीं। कोलर ने नीमैन रिपोट्र्स को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि गूगल ऐडसेंस के जरिये भुगतान पाने वाले सामग्री लेखकों ने उस विधा में काम करने वाले अन्य लोगों की तुलना में अधिक पैसे कमाए। डिसइन्फोमीडिया के मालिक के रूप में कोलर ने हर महीने 10,000 से लेकर 30,000 डॉलर तक कमाए।

 

कार्यक्रम संबंधी विज्ञापन सॉफ्टवेयर के चलते ऐसा होना मुमकिन है। यह सॉफ्टवेयर देखे जाने वाले वेब पेज, पाठक की संबद्धता और उसकी गतिविधियों के आधार पर विज्ञापन दिखाता है। इस तरह यूनिलीवर या प्रॉक्टर ऐंड गैम्बल जैसा ब्रांड भी पाइरेटेड फिल्म बेचने वाली या जिहादी भाषण से भरपूर वेबसाइट पर देखा जा सकता है। ये 'बुरे विज्ञापन' अब विभिन्न बाजारों में काफी उठापटक पैदा कर रहे हैं। मसलन, ब्रिटेन में संसद सदस्य इस तरह के विज्ञापनों पर रोक की मांग कर रहे हैं। फेसबुक और दूसरे सोशल प्लेटफॉर्म ने गलत खबरों से निपटने के लिए गंभीर पहल शुरू की है। शायद इस कोशिश से ही कोई नतीजा निकले।

बेंगलूरु में नंदन कामत कानूनी फर्म के वरिष्ठ सहयोगी अभिनव श्रीवास्तव का मानना है कि मुक्त इंटरनेट पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति के साथ-साथ घृणा और झूठ फैलाने वाली सामग्रियों में कटौती के बीच संतुलन साधने के लिए इस तरह का स्वैच्छिक नियंत्रण सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। हो सकता है कि उनका सोचना सही हो। लेकिन एक दार्शनिक सवाल अब भी बाकी रह जाता है, अगर तकनीक ने पहले से ही मौजूद घृणा को बढ़ाने का काम किया है तो मानवता के लिए इससे निजात पाने का रास्ता क्या होगा

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