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अमेरिका के डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने संकेत दिया है कि वह पेरिस में 2015 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते में जताई गई प्रतिबद्घताओं से पीछे हट सकता है। यह बात मायने रखती है क्योंकि अमेरिका वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 14 फीसदी का जिम्मेदार है। अमेरिका का इस समझौते से पीछे हटना अन्य देशों को भी इसके लिए प्रोत्साहित कर सकता है।
Deviation from Paris and fallout:
पेरिस समझौते में उत्सर्जन कटौती के लिए जताई गई प्रतिबद्घता से किसी भी तरह का विचलन बहुत विनाशकारी साबित हो सकता है। इस समझौते के मूल में यह बात है कि वैश्विक औसत तापमान वृद्घि को औद्योगिक युग के पूर्व के स्तर से अधिकतम दो फीसदी ज्यादा पर सीमित रखा जाए। इस लक्ष्य पर टिके रहने की 66 फीसदी संभावना इस बात पर निर्भर करती है कि सन 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 42 गीगाटन पर सीमित किया जाए और सन 2075 के बाद उसे ऋणात्मक कर दिया जाए। ऐसा करके ही हम 1,000 गीगाटन की उस सीमा में रह पाएंगे जिसका 80 फीसदी 2030 तक इस्तेमाल होना है। समझौते में जिस 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी की कामना की गई है वह बरकरार रहेगी और उम्मीद यही है कि हम एक दशक में उसे पार कर जाएं। पेरिस समझौते के तहत जो प्रतिबद्घताएं जताई गईं वे 2030 तक की अवधि में इस लागत बचाने वाली राह में 12 से 14 गीगाटन तक पिछड़ जाएंगी।
How many committed to their target:
इतना ही नहीं फिलहाल कुछ ही देश ऐसे हैं जो अपनी प्रतिबद्घताएं पूरी करने की राह पर अग्रसर हैं। यूएनईपी की उत्सर्जन अंतराल संबंधी रिपोर्ट में कहा गया है कि जी 20 देशों में से जो उत्सर्जन के अधिकांश हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं, केवल यूरोपीय संघ, भारत और चीन ही लक्ष्यों के अनुरूप चल रहे हैं। जबकि शेष को इसके लिए नीतिगत कदमों की आवश्यकता होगी। परेशान करने वाली बात यह है कि हाल के कुछ वैज्ञानिक कार्य बताते हैं कि दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी का लक्ष्य अपने आप में बहुत ज्यादा है जो कई बड़े जोखिमों से बचाव नहीं कर पाएगा। प्रतिष्ठिïत जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हानसेन और उनके सहयोगियों का कहना है कि औद्योगिक युग के पूर्व के स्तर में दो डिग्री सेल्सियस की यह वृद्घि आने वाले दिनों में बहुत खतरनाक साबित हो सकती है। हकीकत में उन्होंने अनुमान जताया कि वैश्विक तापवृद्घि समुद्र के ठंडे जल की सतह के नीचे गरम पानी को चपेट में ले लेगी और इससे बर्फ के पिघलने की गति और तेज हो जाएगी। इससे समुद्र प्रभावित होंगे और पूरी पृथ्वी इस घटना से बुरी तरह प्रभावित होगी।
Evidences of Climate change:
- इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि जलवायु परिवर्तन उम्मीद से कहीं तेज गति से घटित हो रहा है। फरवरी 2015 से फरवरी 2016 के बीच औसत कार्बन डाइ ऑक्साइड घनत्व 3.76 पार्ट प्रति मिलियन था। हवाई की माउना लोआ वेधशाला के मुताबिक यह एक साल में हुई सबसे अधिक वृद्घि थी। यह स्तर 400 पीपीएम से अधिक है और अब इसमें गिरावट आने की संभावना नहीं नजर आती है। ऐसे में 2030 तक ही दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे। अमेरिका और ब्रिटेन के एक शोध के मुताबिक वर्ष 1998 से 2014 के बीच वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी में ठहराव की खबर गलत थी।
- अमेरिकन मीटिअरलॉजिकल सोसाइटी ने वर्ष 2011 से 2014 के बीच जो बुलेटिन प्रकाशित किए उनमें से आधी से अधिक के मुताबिक मानव जनित जलवायु परिवर्तन के लिए अतिरंजित घटनाएं जिम्मेदार थीं। बीते तीन दशक के दौरान आर्कटिक में समुद्री बर्फ का दायरा आधा से अधिक घटा है। आर्कटिक 2070 के बजाय 2040 तक ही समुद्री बर्फ से रहित हो जाएगा। भारतीय मौसम विभाग का कहना है कि भारत पिछली सदी की तुलना में औसतन 0.60 डिग्री सेल्सियस गरम है। वर्ष 2015 तक देश के सबसे गरम 15 सालों में से 13 वर्ष 2000 के बाद के थे।
- वहीं 2016 सन 1901 के बाद सबसे गरम वर्ष था। गरम हवाओं की घटनाएं और उनकी तीव्रता और आवृत्ति बढ़ती जा रही है। ऐसे में विश्व समुदाय के समक्ष चुनौती यह है कि एक ओर तो वह अमेरिकी व्यवहार से निपटे और दूसरी ओर पेरिस समझौते से इतर भी जलवायु परिवर्तन से निपटने की गतिविधियां तेज करे। ट्रंप को लगता है कि बाजार में मोलभाव करने वालों की तरह अगर वह पेरिस समझौते से दूरी बनाएंगे तो लोग उनके पीछे आएंगे और रियायत की पेशकश करेंगे। ऐसा करने की जरूरत नहीं है। अगर अमेरिका के साथ कोई रियायत हुई तो यह पेरिस प्रतिबद्घता को कमजोर करेगा।
ऐसा नहीं है कि ट्रंप के बिना काम बिगड़ ही जाएगा। अमेरिका फिर भी योगदान करेगा। कैलिफोर्निया जैसे प्रांत जलवायु परिवर्तन योजना में काफी आगे हैं और उन्होंने स्वैच्छिक कार्ययोजना बनाई है जिसके आधार पर वे अहम उत्सर्जन कटौती करेंगे। अमेरिका में अहम तकनीक आधारित कारोबारी नवीकरणीय ऊर्जा, बिजली चालित वाहन और ऊर्जा किफायत के पक्ष में हैं। उन्होंने पहले ही पेरिस समझौते में अमेरिका के बने रहने को लेकर अपना समर्थन जारी कर दिया है। अमेरिकी पर्यावरण आंदोलन ने भी इसके लिए सख्त लॉबीइंग की। प्रशासनिक हलके में भी पेरिस समझौते के समर्थक हैं।
यूरोपीय संघ के नेता और शी चिनफिंग ने अमेरिका को चेतावनी दी है कि वह ऐसा न करे। भारत इस मसले पर खामोश रहा है और उसे अवश्य बोलना चाहिए। इन नेताओं को अमेरिकी प्रशासन से इतर अन्य हलकों में खुलकर जलवायु परिवर्तन की सकारात्मक पहलों को आगे बढ़ाना चाहिए। कारोबारी समूहों, शोध संस्थानों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं को प्रेरित करना चाहिए कि वे अमेरिका में अपने साथियों से बात करें।
ऐसा करना कठिन भी है और सरल भी। कठिन इसलिए क्योंकि जीवाश्म ईंधन वाले देश इसका विरोध करेंगे और आसान इसलिए क्योंकि इसके विकल्प बहुत तेजी से व्यावहारिक होते जा रहे हैं। इन्हें पूंजी भी मिल रही है और प्रतिभा भी। यूरोपीय संघ, चीन और भारत, तीनों देश अपनी प्रतिबद्घताओं को स्वैच्छिक रूप से बढ़ा सकते हैं। ऐसा करके वे नए चेतावनी संकेतों को लेकर बेहतर प्रतिक्रिया दे पाएंगे। जीवाश्म ईंधन उद्योग का अंत और नई नवीकरणीय ऊर्जा पर आधारित अर्थव्यवस्था के उदय के साथ परिवहन, शहरी डिजाइन और भवनों आदि में बदलाव आएगा। हमें भी इतिहास की इस धारा के साथ बहना चाहिए और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को पीछे छोड़ देना चाहिए।