”ब्रिटेन के यूरोपीय संघ छोड़ने के बाद”

- ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होना, इस साल की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाएगी। अभी तक ‘एकीकृत यूरोप’ की बात कही जाती रही थी। अब वह खत्म हो गई है। अब एक अलग ‘ब्रिटिश विजन’ सामने आएगा।

- स्कॉटलैंड भी अपनी अलग सोच लेकर चलेगा, क्योंकि वहां से आए नतीजे यूरोपीय संघ के पक्ष में थे। इसी तरह, अन्य यूरोपीय देश भी अपना-अपना नजरिया लेकर आगे बढ़ेंगे। जाहिर है कि यूरोपीय संघ को एक ‘विफल मॉडल’ की तरह अब पेश किया जा सकता है। बहरहाल, ब्रिटिश जनता की जो राय आई है, वह कमोबेश तय ही थी। यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने को लेकर ब्रिटेन शुरू में भी काफी उलझन में था। उस दौर में मेरी नियुक्ति ब्रसेल्स में ही थी।

- तब ब्रिटेन का यह मानना था कि चूंकि उसकी व्यापक वैश्विक भूमिका है, लिहाजा उसे यूरोपीय संघ में भी खास रुतबा दिया जाए और ब्रिटिश पाउंड को भी भरपूर तवज्जो मिले। हालांकि तब वहां एक राय यह भी बन रही थी कि चूंकि यूरोप कहीं ज्यादा समृद्ध बन गया है, लिहाजा ब्रिटेन को यूरोपीय संघ में शामिल हो जाना चाहिए। काफी माथापच्ची के बाद 1973 में ब्रिटेन यूरोपीय संघ का हिस्सा बना।

- हालांकि बाद के वर्षों में यह भावना ब्रिटेन में उभरी कि ब्रिटेन का जितना फायदा यूरोपीय देशों ने उठाया, उतना ब्रिटेन यूरोपीय संघ का नहीं उठा सका, यानी ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज धुंधला हो गया है। इसके अलावा, यह सोच भी शिद्दत से उभरी कि ईयू के अपेक्षाकृत कमजोर देशों के लिए ब्रिटेन को ज्यादा रकम अदा करनी पड़ रही है। जबकि सच यह है कि पिछले वर्ष करीब 8.5 अरब पाउंड यूरोपीय संघ को दिए गए, जो उसकी अर्थव्यवस्था का बहुत छोटा हिस्सा माना जाएगा।

- पाउंड के घटते रुतबे भी सवालों के घेरे में थे, और माना जा रहा था कि उसकी भूमिका लगातार कम हो रही है। रही-सही कसर प्रवासियों के मुद्दे और रोजगार के संकट ने पूरी कर दी। आर्थिक ताकत के तौर पर एशियाई देशों के उभरने से भी ब्रिटेन को अपने रुतबे में गिरावट आती दिखी। नतीजतन, विरोध की भावना शुरू हुई और अब ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया है।

- सवाल यही है कि इस घटनाक्रम के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था कितनी बदलेगी और देश-दुनिया पर इसका कितना असर पड़ेगा? शेयर बाजार लुढ़कने लगे हैं और पाउंड में भी गिरावट आई है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि शेयर बाजार अनुमान व संभावना पर ही ऊपर-नीचे होते हैं। मगर आर्थिक मोर्चे पर इस घटनाक्रम को कोई बड़ा असर पडे़गा, ऐसा नहीं लग रहा।

- यूरोपीय संघ में जर्मनी के बाद ब्रिटेन दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत था। यह ऐसा मुल्क है, जो परमाणु शक्ति से संपन्न है और सुरक्षा परिषद का भी स्थायी सदस्य है। यह मुक्त व्यापार का समर्थन करता है, और अमेरिका का करीबी है। लिहाजा उस पर बड़ा असर नहीं पड़ेगा। हां, फिलहाल ब्रिटिश पाउंड की स्थिति डांवांडोल रहने से अमेरिकी डॉलर में मजबूती आ सकती है।

- इस फैसले का सर्वाधिक असर जिस पर पड़ेगा, वह है बहुलवादी-संस्कृति की भावना। प्रवासियों की आमद चूंकि एक बड़ा मुद्दा रही है, लिहाजा सीमा पर कई तरह की बंदिशें लग सकती हैं। दोनों हिस्से यानी ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के अन्य देश, रक्षात्मक रणनीति अपनाएंगे। अब संबंधों का भी नया समीकरण बनेगा। अमेरिका व यूरोपीय संघ (ब्रिटेन को छोड़कर), अमेरिका व ब्रिटेन, और ब्रिटेन व यूरोपीय संघ के बीच नए कूटनीतिक, आर्थिक व रणनीतिक संबंध बनते हुए हम देखेंगे।

- इस घटनाक्रम से भारत को नुकसान भी है, तो फायदा भी। भारतीय वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2015-16 में ब्रिटेन के साथ भारत का द्विपक्षीय व्यापार 14.02 अरब डॉलर का रहा, जिसमें भारत को साढ़े तीन अरब डॉलर से ज्यादा का फायदा हुआ। यह फायदा बढ़ सकता है। अभी मुक्त व्यापार को लेकर यूरोपीय संघ से हमारी बातचीत चल ही रही थी। अब हमें इसे लेकर ब्रिटेन के साथ अलग और यूरोपीय संघ के साथ अलग समझौते करने होंगे। यूरोपीय संघ शायद न भी माने, पर उम्मीद यही है कि ब्रिटेन इस मामले में नरम रुख अपनाएगा। खासकर वहां काम कर रहे भारतीय कामगारों की सामाजिक सुरक्षा जैसे मामलों में उसके रुख में नरमी दिख सकती है।

- इसकी वजह यही है कि उसे अभी भारत जैसे बड़े बाजार की तलाश है। हमारे छात्रों को भी वहां विशेष तवज्जो मिल सकती है। आशा है कि अब आसानी से उन्हें वहां दाखिला मिल सकेगा। ब्रिटेन की कोशिश यह भी होगी कि इंग्लैंड के निवेश को भारत खास महत्व दे। जिस तरह मॉरिशस, साइप्रस या सिंगापुर से आने वाले निवेश को लेकर भारत के रुख में उदारता होती है, ठीक वैसी ही नरमी वह भी चाहेगा। इससे ब्रिटिश पाउंड को भी मजबूती मिलेगी। लेकिन एक मुश्किल भारतीय कंपनियों को लेकर आ सकती है, क्योंकि उन्हें पूरे यूरोप का बाजार नहीं मिलेगा।

हालांकि अगर हम इस मुद्दे पर दबाव बनाएं, तो संभव है कि हमारी भूमिका कमतर न हो। यहां यह सावधानी रखने की जरूरत होगी कि रोजगार पर किसी तरह का संकट न आए। चूंकि यूरोपीय संघ से अलग होने के मुद्दे में रोजगार भी एक रहा है, इसलिए यदि युवाओं को काम नहीं मिला, तो न सिर्फ कारोबारी कंपनियों के खिलाफ, बल्कि वहां की सरकार के खिलाफ भी विरोध प्रदर्शन शुरू हो सकते हैं। वहां की अर्थव्यवस्था के कमजोर होने से बाहरी देशों की कंपनियों के खिलाफ गुस्सा बढ़ सकता है। इसलिए जरूरी है कि अभी जो वहां की अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव आएंगे, उसे लेकर खास नीति बनाई जाए।

विदेश मंत्रालय, वित्त मंत्रालय के साथ ही तमाम विभागों व मंत्रालयों को, जो ब्रिटेन से जुड़े हुए थे, इस पर गंभीरता से सोचना होगा। बहरहाल, नजर अब इसी बात पर होगी कि वहां से किस तरह के कूटनीतिक संबंध विकसित होते हैं। अगर रक्षात्मक कूटनीति की तरफ ब्रिटेन या यूरोपीय संघ आगे बढ़ता है, तो हमें उस हिसाब से रणनीति बनानी होगी। चूंकि आशंका यह भी है कि बहुसांस्कृतिक भावना पर हमले हो सकते हैं, लिहाजा उससे हमें सावधान रहना होगा।

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download