सुल्तान बनने की एर्दोआन की सनक तुर्की ही नहीं, सीरिया और इराक के लिए भी हालात बदतर कर सकती है

सन्दर्भ:- तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन किसी निरंकुश तानाशाह की तरह देश के बुद्धिजीवियों की कमर तोड़ने और उसकी सीमाओं का विस्तार करने की दोहरी लड़ाई लड़ रहे हैं

★देश-विदेश के मीडियावाले तो पहले ही कहा करते थे कि अगस्त 2014 में प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बने रजब तैय्यब एर्दोआन अपने आप को तुर्की का नया सुल्तान समझते हैं. दो ही वर्षों में वे दिखाने भी लगे हैं कि उनके लंबे-तंबे कद के लिए राष्ट्रपति का पद भी बहुत छोटा ही है! वे डींग हांकने और शेखी बघारने में ही चतुर नहीं हैं, इतने दुस्साहसी भी हैं कि अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए देश-दुनिया से भिड़ जायें.

तुर्की के 93वें गणराज्य दिवस के अवसर पर 29 अक्टूबर को एक भाषण में उन्होंने कहा कि ‘सुदृढ़ लोकतंत्र और मूल मानवीय मूल्यों के प्रति अपने समर्पण के कारण तुर्की पूरे विश्व के लिए प्रेरणा-स्रोत बन गया है.’ नाटो सैन्य संगठन के सदस्य तुर्की के पश्चिमी प्रशंसक भी कुछ समय पहले तक कुछ यही कहा करते थे. वे कहते थे कि तुर्की लोकतंत्र और इस्लाम के बीच सुसंगति का ऐसा सबसे जीवंत प्रमाण है, जिससे न केवल सभी इस्लामी देश प्रेरणा ले सकते हैं, बल्कि जो इस्लामी और ग़ैर-इस्लामी जगत के बीच पुल का काम भी कर सकता है. तुर्की में इस साल 15 जुलाई को एर्दोआन का तख्ता पलटने के कथित सैनिक प्रयास के बाद से पश्चिमी सरकारों की बोलती बंद है और लोकतंत्र के प्रेरणा-स्रोत बने घूम रहे एर्दोआन की लोकसंत्रासी मनमानी अपनी बुलंदी पर है.

=>निरंकुश अधिकारों के लिए आपातस्थिति

.यह तख्तापलट वास्तव में देश-दुनिया को भ्रमित करने के लिए एर्दोआन का ही रचा एक छलावा था. उन्होंने तख्तापलट के 15 जुलाई वाले कथित प्रयास को, उसके अंत से पहले ही, यूं ही ‘अल्लाह का दिया तोहफ़ा’ नहीं बताया था. अपने आप को किसी सुल्तान जैसे निरंकुश अधिकार देने के लिए उन्हें जनरलों से लेकर क्लर्कों तक और न्यायाधीशों से लेकर शिक्षकों व पत्रकारों तक ढेर सारे अवांछित लोगों का सफ़ाया करना था. इसके लिए जिस मनमानी की ज़रूरत थी, वह तख्तापलट का शोर मचा कर आपातस्थिति लागू करने से ही मिल सकती थी.

आपातस्थिति लगा कर अब तक 35 हजार से अधिक लोगों को हिरासत में ले लिया गया है. चार हजार की धरपकड़ के लिए खोज हो रही है. 82 हजार अन्य लोगों के विरुद्ध जांच-पड़ताल चल रही है. चार हजार से अधिक सैनिकों व सैनिक अफ़सरों, 50 हजार से अधिक शिक्षकों, पुलिसकर्मियों, जजों, सरकारी वकीलों और डॉक्टरों जैसे सार्वजनिक कर्मचारियों की नौकरियां छीन ली गई हैं. स्कूलों-कॉलेजों से लेकर अस्पतालों और न्यायालयों तक में सही क़िस्म के लोगों का भीषण अकाल पड़ गया है, और एर्दोआन हैं कि वे निजी तौर पर शिकायतें दर्ज करवा कर अंधाधुंध गिरफ्तारियां करवा रहे हैं.

=●मीडिया का मुंह बंद

क़रीब 170 पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशन गृहों, समाचार एजेंसियों और रेडियो-टेलीविज़न चैनलों को बंद तक कर दिया गया है. 140 पत्रकार और प्रकाशक जेलों में हैं. कुछ दूसरों को तुर्की से भाग कर जर्मनी जैसे देशों में शरण लेनी पड़ी है. अक्टूबर के अंत में तुर्की के एक सबसे पुराने और जाने-माने दैनिक ‘जम्हूरियत’ के नए प्रधान संपादक मुरात साबुन्जू और उनके आधे दर्जन अन्य सहयोगी पत्रकारों को गिरफ़्ताकर लिया गया. उन पर आरोप लगाया गया है कि वे कुर्दों की पार्टी ‘पीकेके’ और कभी एर्दोआन के परम सहयोगी रहे – किंतु अब अनकी नज़रों में उनके परम विरोधी बन गए – फ़ेतुल्ला ग्युलेन के साथ मिलीभगत रखते हैं. ‘जम्हूरियत’ को इस साल सितंबर में लोकतंत्र के प्रति उसकी अटल प्रतिबद्धता के लिए वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार मिला था. उसके मूल प्रधान संपादक जान द्युंदार को पहले ही जर्मनी में शरण लेनी पड़ी है. विभिन्न देशों में तुर्की के राजनयिक मिशनों के लगभग तीन दर्जन कूटनीतिज्ञों ने भी अकेले जर्मनी से शरण देने की मांग की है.

अक्टूबर के आखिर में एक बार फिर क़रीब 10 हजार सरकारी कर्मचारियों को बर्ख़ास्त करने का समाचार आया. इसे मिलाकर देखें तो 15 जुलाई के बाद से, उच्चशिक्षा संस्थानों के अब तक 3613 शिक्षाविद (प्रोफ़ेसर और लेक्चरर) अपनी नौकरियां गंवा चुके है. जेलें ठसाठस भरी होने से हज़ारों लोगों को स्टेडियमों जैसी जगहों में भी नज़रबंद रखा जा रहा है. तुर्की की जनसंख्या लगभग भारत के मध्य प्रदेश बराबर (लगभग साढ़े सात करोड़)है. कल्पना करें कि मध्य प्रदेश में तीन-चार महीनों के भीतर ही 50 हजार लोगों को जेलों में ठूंस दिया जाए और एक लाख से अधिक सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों की छंटनी कर दी जाए तो शासनतंत्र और जनजीवन का क्या हाल होगा!

=>>जनता बनी प्रजा

नौकरियां छीन लेने और जेलों में ठूंस देने के बाद ‘मानवीय मूल्यों को समर्पित’ तु्र्की के ‘सुदृढ़ लोकतंत्र’ के नायक राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन अब अपने सच्चे-झूठे विरोधियों के लिए कब्रें खोदने पर तुले हुए है. तुर्की में मृत्युदंड का 2002 में अंत कर दिया गया था. एर्दोआन अब उसे पुनर्जीवित करना चाहते हैं. शनिवार, 30 अक्टूबर को, राजधानी अंकारा की एक जनसभा में उन्होंने ऊंची आवाज में ऐलान किया, ‘अल्लाह की कृपा से मृत्यदंड भी अब जल्द ही आ रहा है.... महत्वपू्र्ण यह नहीं है कि पश्चिम क्या कहता है, महत्वपूर्ण यह है कि मेरी जनता क्या कहती है.’

उन्होंने देश की जनता नहीं, ‘मेरी जनता’ कहा. ऐसा वही तो कहेगा, जो अपने आप को राजा और जनता को प्रजा समझता हो. प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की की पराजय होने तक तुर्की एक राजशाही साम्राज्य हुआ करता था. उसका सम्राट सुल्तान कहलाता था और साथ ही इस्लामी जगत का ख़लीफ़ा भी माना जाता था.

लगता है, एर्दोआन भी तुर्की का नया सुल्तान बनने के साथ-साथ इस्लामी जगत का नया खलीफ़ा बनने का शौक भी रखते हैं. जब तक ‘आईएस’ (इस्लामी स्टेट) के स्वघोषित खलीफ़ा अबू बकर अल बगदादी का सितारा बुलंदी पर था, तब तक एर्देआन भी पर्दे के पीछे से उसका साथ दे रहे थे. ‘आईएस’ को खड़ा और बड़ा करने में उनकी भी एक घिनौनी भूमिका रही है. अब, जबकि इराक़ी सेना ‘आईएस’ अधिकृत मोसुल की तरफ तेज़ी से बढ़ रही है और उसकी की मार के आगे अल बगदादी को छठी का दूध याद आ रहा होगा, एर्देआन उसकी खलीफ़त का एक हिस्सा खुद हड़प लेने की फ़िराक में हैं. वे दावा कर रहे हैं कि सीरिया में अलेप्पो से लेकर उत्तरी इराक़ के मोसुल और किर्कुक के बीच का इलाका तुर्की का भूभाग है.

=>कुर्दों का भय
27 अक्टूबर के एक टेलीविज़न प्रसारण में किसी सैनिक कमांडर की तरह बोलते हुए एर्दोआन ने कहा कि तुर्की के सैनिक ‘आईएस’ से लड़ते हुए उसके मुख्य गढ़ राक्का तक जायेंगे. ‘सबसे पहले हम अल बाब की तरफ आगे बढ़ेंगे,’ उन्होंने कहा, ‘और उसके बाद मन्बीज होते हुए राक्का पहुंचेंगे.’ अल बाब और राक्का उत्तरी सीरिया में दो ऐसे प्रमुख शहर हैं, जो ‘आईएस’ के हाथों में हैं, जबकि मन्बीज सीरियाई कुर्दों के क़ब्ज़े में है. एर्दोआन सीरियाई कुर्दों की पार्टी ‘पीवाईडी’ और उसकी नागरिक मिलिशिया ‘वाईपीजी’ को आतंकवादी मानते हैं और कतई नहीं चाहते कि तुर्की की सीमा से सटे उत्तरी सीरिया के इस भाग को हथियाने में कुर्द उनके आड़े आएं.

इस टेलीविज़न प्रसारण में एर्दोआन ने एक और दावा किया. उन्होंने कहा कि अपनी सैन्य योजनाओं के बारे में उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से टेलीफ़ोन पर बात कर ली है और साफ़ कह दिया कि वे अपने अभियान में सीरियाई कुर्दों की कोई भागीदारी नहीं चाहते. उनका कहना था कि अमेरिका ने इसमें ‘सहयोग का संकेत दिया.’

अमेरिका की नीयत भी बहुत साफ़ नहीं लगती. ‘आईएस’ के खिलाफ लड़ाई में वह अब तक सीरियाई कुर्दों की ‘वाईपीजी मिलिशिया के साथ रहा है, पर साथ ही सीरिया में तुर्क सेना के पैर आगे बढ़ने से भी रोक नहीं रहा है. बीते सितंबर में तुर्की ने सीरिया की सीमाओं का उल्लंघन करते हुए उत्तरी सीरिया में एक असाधारण सैनिक अभियान छेड़ा. उसके सैनिक और युद्ध-टैंक सीरिया के उन सरकार-विरोधी विद्रोहियों की सहायता कर रहे हैं, जो सीरिया को ‘आईएस’ के बदले अपनी मुठ्ठी में देखना चाहते हैं.

तुर्की, सीरिया और इराक़ के कितने कुर्द लड़ाके भी अपने बल पर ‘आईएस’ से लोहा ले रहे हैं, कोई नहीं जानता. मोसुल की देर-सवेर मुक्ति के बाद ये कुर्द लड़ाके मोसुल को तुर्की की पसंद का केवल सुन्नियों का शहर बनने से रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन के विस्तारवादी सुनहरे सुल्तानी सपने की राह का वे ही सबसे विकट रोड़ा सिद्ध हो सकते हैं. वैसे, कुर्द भी निःस्वार्थ नहीं लड़ रहे हैं. एक स्वतंत्र कुर्दिस्तान बनाने का तीन सदियों पुराना अपना सपना साकार करने के जितने करीब वे आज हैं, उतना पहले कभी नहीं थे.

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