Suicides at Birthplace of Green revolution
पंजाब में पिछले एक दशक के दौरान हुई किसान आत्महत्या की घटनाओं ने सरकारी तंत्र पर हमेशा सवाल खडेÞ किए हैं। कर्ज में डूबे किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार के पास उन्हें कर्ज से उबारने के लिए अभी कोई मास्टर प्लान नहीं है। केंद्रीय पूल में सर्वाधिक खाद्यान्न देने वाले पंजाब की यह भयावह तस्वीर है। जहां का कोई भी जिला ऐसा नहीं है जहां किसान आत्महत्याओं के मामले सामने नहीं आए हैं। पंजाब की माझा और दोआबा पट्टी के मुकाबले मालवा के किसानों की हालत अधिक दयनीय है। अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञ पिछले डेढ दशक से पंजाब की सरकारों को लगातार चेता रहे हैं कि सूबे में कृषि की जोत लगातार कम होती जा रही है। पंजाब में किसानों का कृषि के कारोबार से लगातार मोहभंग हो रहा है। इसके बावजूद समय-समय की कोई भी सरकार इस मुद्दे पर गंभीर नहीं हुई है और राज्य में किसानों की हालत लगातार दयनीय होती जा रही है।
Ø गैरसरकारी रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में किसानों की तरफ करीब 70 हजार करोड़ रुपए का कर्ज खड़ा था।
Ø सत्ता परिवर्तन के बाद जब वर्तमान सरकार ने किसानों के कर्ज का सर्वे शुरू करवाया तो यह धनराशि 85 हजार करोड़ पार कर चुकी है।
Ø पंजाब में इस समय कुल किसानी का 85.9 फीसद हिस्सा इस समय कर्ज में है। पंजाब में एक खेत मजदूर पर करीब 66 हजार 330 रुपए कर्ज है।
Ø किसानों की हालत यह है कि इस समय कर्ज का 65 फीसद हिस्सा खेती में ही खर्च होता है। एक सर्वे के मुताबिक, पंजाब में 2000 से लेकर 2011 की अवधि के दौरान कुल 7 हजार 631 किसानों तथा भूमिहीन खेती मजदूरों ने आत्महत्या की है। इनमें से केवल मानसा जिले में आत्महत्या का यह आंकड़ा 1334 रहा है। संगरूर जिले में 2000 से 2011 तक जहां 1132 किसानों ने आत्महत्याएं की वहीं बठिंडा जिले में 827 किसानों ने मौत को गले लगाया।
पांच साल बाद आत्महत्या करने वाले किसानों के आश्रितों को राहत पैकेज देना तो दूर की बात है सरकार सर्वे तक नहीं करवा सकी है। किसानों की कर्जमाफी का वादा करके सत्ता हासिल करने वाली कांग्रेस के सामने बड़ी दुविधा खड़ी हो गई है। सत्ता परिवर्तन के बाद हर माह औसतन 21 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों की कर्ज माफी के लिए गठित हक कमेटी लगातार बैठकों का आयोजन करने में लगी हुई है। इसके बावजूद किसानों की समस्या का समाधान नहीं हो रहा है।
In search for Reason:
Ø पंजाब मामले के विशेष जानकार एवं प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एस.एस. जौहल मानते हैं कि पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी सरकार ने खेतीबाड़ी के समक्ष खड़े हो रहे संकट का समाधान करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया।
Ø भारतीय किसान यूनियन के नेता शिंगारा सिंह मान के अनुसार अगर सही मायने में किसानों के हित में कुछ करना चाहती है तो आत्महत्या के सही आंकड़ों को आम करते हुए मृतकों के आश्रितों को सहायता प्रदान करे।
Ø दूसरी तरफ भारतीय खेत मजदूर सभा के प्रदेशाध्यक्ष लक्ष्मण सिंह सेवेवाल के अनुसार सरकार ने 2014 में सभी जिला उपायुक्तों की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यों वाली कमेटी का गठन करके 31 मार्च 2013 के बाद हुई किसान आत्महत्याओं के बारे में मासिक रिपोर्ट भेजने के निर्देश दिए थे। यह रिपोर्ट आजतक सरकार के पास नहीं पहुंची है।
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में चल रहे किसान आंदोलन की लपटें हरियाणा तक भी पहुंच सकती हैं।