नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध परियोजना की चपेट में आए तमाम गांवों और वहां रहने वाले लोगों के विस्थापन और उनके मुआवजे का सवाल

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नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध परियोजना की चपेट में आए तमाम गांवों और वहां रहने वाले लोगों के विस्थापन और उनके मुआवजे का सवाल करीब तीन दशक पुराना है। लेकिन सरकारों के अपनी जिम्मेदारी से भागने के चलते यह मामला उलझा रहा है।

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर एक अहम फैसला दिया है, जो प्रभावित परिवारों के लिए शायद राहत का सबब बन पाए। हालांकि अब भी बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो उचित मुआवजा नहीं मिल पाने पर अपना विरोध जता रहे हैं।

  • अदालत के फैसले के मुताबिक जिन परिवारों की दो एकड़ जमीन सरदार सरोवर परियोजना के लिए अधिग्रहीत की गई, उन्हें साठ लाख रुपए मुआवजा दिया जाएगा। इसका लाभ एक सौ तिरानबे गांवों के छह सौ इक्यासी परिवारों को मिलेगा।
  • मुआवजा हासिल करने वालों से एक महीने के भीतर जमीन खाली करने का शपथपत्र लिया जाएगा। उसके बाद सरकार वह जमीन जबरन खाली करा सकती है।
  • अदालत ने एक हजार तीन सौ अट्ठावन परिवारों को पंद्रह लाख रुपए प्रति परिवार देने का भी आदेश दिया।

विश्लेषण

  • इतने लंबे समय के संघर्ष के बाद आया अदालत का फैसला उस इलाके के प्रभावित परिवारों के लिए एक बड़ी राहत है।
  • इस परियोजना में मध्यप्रदेश के एक सौ बानबे गांव, एक टाउनशिप और गुजरात के उन्नीस गांव डूब जाएंगे। इसके अलावा, जिस तरह मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के करीब पैंतालीस हजार विस्थापित परिवारों को डूबी जमीन के बदले जमीन न मिल पाने की शिकायत बनी हुई है और इसे लेकर विरोध सामने आया है, उससे यही लगता है कि अभी इस मसले का एक मुकम्मल और न्यायपूर्ण हल बाकी है।
  •  कानून के मुताबिक सभी वयस्कों को पांच एकड़ भूमि मिलनी चाहिए। लेकिन हालत यह है कि जमीन पर अधिकार के आदेश के बावजूद बहुत सारे किसानों के पास न अपनी भूमि है, न आजीविका का कोई अन्य साधन। लगभग तीन दशक बाद भी इस परियोजना की जद में अपनी जमीन और जीविका के साधन गंवाने वालों के पुनर्वास का मामला अधर में लटका रहा है तो जाहिर है कि विकास के दावों की मार झेलने वालों के प्रति सरकार कितनी संवेदनशील है।

A lesson for future governments:

एक बड़े आंदोलन के बावजूद जब आखिर सरदार सरोवर बांध के निर्माण पर कोई फर्क नहीं पड़ा तब लड़ाई विस्थापितों को बसाने और मुआवजा दिलवाने के सवाल पर केंद्रित हो गई। लेकिन लगातार आंदोलन का ही नतीजा रहा कि विस्थापन से पहले प्रभावित लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था, पर्यावरण और दूसरे सामाजिक असर के बारे में देश भर में एक बहस खड़ी हुई। जहां पहले ऐसी किसी परियोजना में विस्थापितों का पुनर्वास व मुआवजा सरकारों के लिए कोई खास चिंता की बात नहीं थी, वहीं अब इसकी अनदेखी आसान करना आसान नहीं रह गया है। विकास जरूरी है, लेकिन अगर उसकी कीमत एक बड़ी आबादी के अपनी जमीन से उखड़ने और रोजी-रोटी गंवाने और लोगों के बुनियादी अधिकारों के हनन के रूप में सामने आती है तो यह स्थिति राज्यतंत्र को और साथ ही विकास नीति को भी कठघरे में खड़ा करती है |

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