दुरुपयोग पर अंकुश

#Dainik_Tribune

Recent acceptance by Court

दहेज उत्पीड़न के आरोपों से संबंधित मामलों को लेकर विभिन्न अदालतों का हालिया रुख इस बात का पर्याप्त संकेत है कि वे अब इस तरह के मामलों में महिलाओं को पूरी तरह निर्दोष मानने को तैयार नहीं हैं। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया है कि शादी संबंधी झगड़ों में संलिप्त महिलाएं ससुराल पक्ष को निशाना बनाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए का अकसर दुरुपयोग करती हैं।

Direction by court in this regard

  • विशेष पुलिस अधिकारी तथा जिलास्तरीय परिवार कल्याण समिति द्वारा आरोपों की पुष्टि किए बिना दहेज उत्पीड़न के किसी भी मामले में कोई गिरफ्तारी न की जाए।

Is this move right?

यह बात ठीक है कि ऐसे किसी भी मामले की जांच के लिए जांच कमेटी का गठन न्याय सुलभ कराने की प्रक्रिया के खर्च में इजाफा ही करेगा, लेकिन यह बात भी तो पूरी तरह सही है कि इस प्रक्रिया के चलते कई निर्दोष पति तथा अन्य ससुरालजन पुलिस के अनावश्यक उत्पीड़न से बच पायेंगे क्योंकि दहेज उत्पीड़न संबंधी मामलों में अकसर देखा और सुना जाता है कि पुलिस वधू पक्ष की तरफ से ऐसी कोई शिकायत आने पर सत्यता की गहराई से जांच किए बिना वर पक्ष के प्रति अमानवीय कृत्यों पर उतारू हो जाती है और अगर कहीं वधू पक्ष ज्यादा ही रसूखदार हो, फिर वर पक्ष वालों की तो मानो खैर ही नहीं।

  • कानून के मुताबिक आरोप साबित होने तक हर कोई बेकसूर है, लेकिन इस कानूनी प्रावधान की प्राय: अनदेखी की जाती रही है।
  •  महज आरोपों के आधार पर पति, उसके माता-पिता, भाई-बहनों को हथकड़ी पहना देने के कारण न केवल उन्हें मानसिक संताप सहना पड़ता है बल्कि बेवजह के मीडिया ट्रायल का सामना करने के साथ-साथ समाज भी उन्हें हिकारत की नजर से देखता है।
  • ऐसे लोग बाद में भले ही अदालत से निर्दोष साबित हो जाएं, लेकिन उनका खोया हुआ आत्मसम्मान और स्वाभिमान तो कदापि वापस नहीं लौटाया जा सकता।

What court made it clear

  •  दहेज उत्पीड़न के आरोपों से संबंधित मामलों में दोष-सिद्धि की दर मात्र 15.6 प्रतिशत रहने के आधार पर सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि धारा 498-ए का खुल्लम-खुल्ला दुरुपयोग रुकना चाहिए।
  • कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कहा है कि शादी संबंधी विवादों में उलझे अनिवासी भारतीयों के पासपोर्ट जब्त करने से भी बचा जाना चाहिए।

Other cases


इस संबंध में दिल्ली हाईकोर्ट की ओर से आपसी संबंधों में दरार आ जाने के बाद सहमति से किए गए सहवास को बलात्कार बताने की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता जताना पूरी तरह जायज है। इसी आधार पर कोर्ट ने बलात्कार के एक निपट चुके मामले में एक महिला द्वारा उसके आदमी के खिलाफ पुन: मुकदमा चलाने के आग्रह पर विचार करने से इनकार कर दिया।

 इसी के चलते एक ताजा मामले में मद्रास हाईकोर्ट को एक फैमिली कोर्ट को यह कहना पड़ा कि पतियों के साथ ‘नि:शस्त्र योद्धा’ की तरह व्यवहार न किया जाए और न ही उन्हें पत्नियों को ‘यांत्रिक तरीके से’ गुजारा भत्ता अदा करने के लिए कहा जाए। पुरुषों को क्योंकि अपने माता-पिता की देखभाल भी करनी होती है, इसलिए जरूरी है कि पत्नियों को वाजिब गुजारा भत्ता ही दिया जाए। ऐसे में कहा जा सकता है कि कानून के दुरुपयोग की बढ़ती घटनाओं की वजह से ही अदालतों को महिलाओं को लंबे अरसे से प्राप्त कानूनी संरक्षण को कुछ कम करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। महिलाओं ने भी कानून की आड़ में ‘इंसाफ’ की खातिर या फिर अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने के इरादे से इतर अन्य कारणों से पुलिस अथवा अदालतों की शरण लेकर अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारने का काम किया है

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