#Dainik_Jagarn_Editorial
सरकार, साहित्य और संस्कृति-ये तीनों आजकल भीड़ तंत्र के हवाले दिखते हैं। कानून नहीं भीड़ का राज बढ़ चला है। भावनाएं आहत होने के नाम पर जो लोग किसी खास जगह इकट्ठे हो रहे बस वही सही कह रहे हैं, कानून और जांच एजेंसियां आदि सब गलत। अच्छी-भली बहुमत वाली सरकारें भी इसी भीड़ के आगे कांपने लगती हैं। उन्हें लगता है कि भीड़ मतलब ढेर सारे वोट। लोकतंत्र में जीत-हार के लिए एक-एक वोट की कीमत है। जल्लीकट्टू मुद्दे पर हुए आंदोलन को ही ले लें। इस मसले पर चेन्नई में समुद्र तट पर भीड़ इकट्ठी हो गई और इस खेल को लोगों ने अपनी संस्कृति और तमिल स्वाभिमान से जोड़ दिया।
कुछ सोचने वाले बिंदु
- मामला इतना आगे बढ़ा कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री दिल्ली तक दौड़े और लौटकर उन्होंने कुछ शर्तो के साथ अध्यादेश और बाद में विधेयक भी पास कर दिया। इसे विभिन्न चैनलों ने तमिल उत्थान और अधिकारों से जोड़ा।
- जब आंदोलन खत्म हो गया तो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने कहा कि इसमें राष्ट्रविरोधी तत्व भी आ जुटे थे। अगर इस आंदोलन को राष्ट्रविरोधी तत्वों ने हवा दी तो मुख्यमंत्री को अध्यादेश जारी करने की क्या सूझी?
- जो तमाम टीवी संवाददाता इस आंदोलन को कवर कर रहे थे वे भी जल्लीकट्टू के समर्थकों की तरह बोल रहे थे। वे इसे युवाओं की आकांक्षा बता रहे थे।
- पत्रकार एन राम ऐसे दिखे जिन्होंने इस आंदोलन का विरोध किया था। उन्होंने इसे अमीर किसानों का खेल बताया।
जल्लीकट्टू के बाद अब कंबाला
अभी जल्लीकट्टू की आग थमी नहीं थी कि कर्नाटक में कंबाला (जो कि भैंसों का खेल है और जिस पर न्यायालय ने रोक लगा रखी है) पर से रोक हटाने और कर्नाटक के स्वाभिमान की रक्षा की बातें होने लगीं। बताया जाने लगा कि यह खेल आठ सौ वर्ष पुराना है और कर्नाटक की संस्कृति से गहराई से जुड़ा है।
शोचनीय पक्ष
जिस तरह संयुक्त परिवार में आज कोई रहना नहीं चाहता उसी तरह देश के बारे में सोचना भी बंद सा हो चला है। सब अपने-अपने प्रदेश, भाषा और संस्कृति को महान बता रहे हैं। एकता की जगह हम अलग हैं की बातें कर रहे हैं। आज किसी के बारे में लिखना, कोई फिल्म बनाना, मंच से अपनी बात कहना और किसी का विरोध करना भी कठिन हो गया है। आज आइडेंटिटी पॉलिटिक्स यानी पहचान की राजनीति हावी होती दिखती है। इसी अधिकार वाद और महानता के विचार ने हममें यह भाव पैदा किया है कि हम जैसे भी हैं सबसे अच्छे हैं। सारा मुद्दा इस सबसे अच्छे और दूसरों से हमेशा अच्छे होने के विचार में छिपा है। चूंकि हम सबसे अच्छे हैं, इसलिए हमारी हर बात और हर परंपरा अच्छी ही होगी। जब निर्भया का मसला चल रहा था, उस समय आंदोलनकारी यही मांग कर रहे थे कि अपराधियों को चौराहे पर सख्त से सख्त और जल्दी से जल्दी सजा दी जाए। उन्हें फांसी पर लटकाया जाए। इस भीड़ तंत्र ने ही यह किया है कि अब अदालतों की बात भी मैं तब मानूंगा जब वे मेरे पक्ष में होगी।
निष्कर्ष
संस्कृति का राग कुछ ऐसा है कि आजकल किसी गलत बात को गलत कहना भी क्षेत्रवाद के कारण अपराध बना दिया जाता है। एक समय बहुत सी अमानवीय प्रथाएं जारी थीं। नवजागरण काल में जब उन्हें हटाने की मांग की जाने लगी तो यही कहा गया कि इसके पीछे भारत नहीं, बल्कि वे अंग्रेजी दिमाग हैं । अब देश के भीतर ही बाहरी और भीतरी का राग जोर से अलापा जाने लगा है। भीड़ की तरह बहुत से एनजीओ भी अतिवाद के शिकार हैं। जानवरों के लिए काम करने वाले एनजीओ का अतिवाद इतना अधिक है कि जो लोग भालू पालते थे, बंदर या सांप पाल कर खेल दिखाते थे। उनकी देखभाल करते थे, पेट पालते थे, उन पर भी जानवरों के अत्याचार के नाम पर रोक लगा दी गई। सदियों से अपने देश में तोते पाले जाते रहे हैं। अब तो तोता या चिड़िया पालना भी गुनाह बना दिया गया है।