लोकसभा व विधानसभा चुनाव एकसाथ

क्यों जरुरी

  • चुनाव लोकतंत्र की धड़कन तो है, उसके जीवंत होने का प्रमाण तो है, पर उसके स्वस्थ, संपन्न और गुणवत्तापूर्ण होने का प्रमाण नहीं। चुनाव को लोकतंत्र का पर्याय नहीं कहा जा सकता। हमें चुनावों से आगे जाना होगा|
  •  चुनावों द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक शैली पर काम करने वाली सरकारों से सुशासन और विकास की नई अपेक्षाएं करनी होंगी, एकसाथ चुनाव इसमें सरकार को focussed रखेगा
  • देश में एक नई राजनीतिक-संस्कृति के माध्यम से दक्ष, प्रभावी और मितव्ययी प्रशासन स्थापित वाली सरकार जो पारदर्शी, स्वच्छ एवं संवेदनशील हो इसके लिए भी  देश में लोकसभा, विधानसभाओं, नगरपालिकाओं और पंचायतों का चुनाव एक साथ करने का सुझाव महत्वपूर्ण हो जाता है।

हाल में संसदीय-समिति ने दिसंबर 2015 में अपने प्रतिवेदन में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश की थी। 

चुनावों का इतिहास

  • संविधान लागू होने के बाद चार बार (1951, 1957, 1962, 1967) लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए।
  • लेकिन 1967 में आठ राज्यों-बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मद्रास (तमिलनाडु) और केरल में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनने से संपूर्ण संघीय ढांचे पर कांग्रेस का एकछत्र वर्चस्व खत्म होने की शुरुआत हो गई।
  • गैर-कांग्रेसी सरकारों को भंग करके उन राज्यों में मध्यावधि चुनाव कराए गए। तबसे लेकर आज तक एक साथ चुनावों का चक्र बन नहीं पाया जिससे हर समय देश में कहीं न कहीं चुनाव चलता ही रहता है।

एक साथ चुनाव करने में  बाधाएं 

  • संवैधानिक बाधा
  • संविधान ने हमें लोकतंत्र का संसदीय-मॉडल दिया जिसमें यद्यपि लोकसभा और विधानसभाएं पांच वर्षो के लिए चुनी जाती हैं, लेकिन अनु. 85 (2) ब के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनु. 174 (2) ब के अंतर्गत राज्यपाल विधानसभा को पांच वर्ष के पूर्व भी भंग कर सकते हैं।
  • अनु. 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और विधानसभाओं को आपातकाल की स्थिति में उनके कार्यकाल के पूर्व भी भंग किया जा सकता है।
  •  अनु. 352 के तहत युद्ध, वाह्य-आक्रमण और सशस्त्र-विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय-आपात लगाकर लोकसभा के कार्यकाल को पांच-वर्ष के आगे बढ़ाया भी जा सकता है।
  • इसके अतिरिक्त अनु. 2 के अंतर्गत संसद किसी नए राज्य को भारतीय संघ में शामिल कर सकती है और अनु. 3 द्वारा कोई नया राज्य बना सकती है, जिनके चुनाव अलग से कराने पड़ सकते हैं।
  • यदि नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव भी संसद और विधानसभाओं के साथ कराने का सुझाव भी जोड़ दिया जाए तो संविधान के भाग 9 अनु. 243 में भी कई संशोधन करने पड़ेंगे। ऐसे संवैधानिक संशोधनों में आधे राज्यों की सहमति भी आवश्यक होगी
  • इस पूरी योजना में संसद द्वारा सरकार (कार्यपालिका) हटाने पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा, बल्कि सरकार (कार्यपालिका) द्वारा संसद और विधानसभाओं को हटाने पर प्रतिबंध लग जाएगा। लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भारत में ऐसा हो पाना संभव नहीं लगता। 

एक साथ चुनाव कराने के फायदे 

  • पूरे देश में केवल एक ही मतदाता सूची होगी। अभी लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों की अलग-अलग मतदाता सूचियां है। अक्सर मतदाता का नाम एक सूची में होता है, लेकिन दूसरी सूची में नहीं होता, जिससे वह मतदान से वंचित हो जाता है।
  • देश को प्रतिवर्ष चुनाव से राहत मिलेगी और सरकारों व जनता को पांच वर्ष तक अपने-अपने काम पर ध्यान देने का अवसर मिलेगा।
  • रोज-रोज के चुनावों से विकास कार्य प्रभावित होते हैं। कहीं मॉडल-कोड ऑफ कंडक्ट के कारण विकास रुकता है तो कहीं नौकरशाह चुनावों का बहाना बनाकर विकास कार्यो से बचते हैं।
  •  देश में चुनावों में हिंसा रोकना एक बड़ी चुनौती होती है, जिसमें पुलिस, अर्ध-सैनिक बल और कभी-कभी सेना भी बुलानी पड़ती है। यदि पांच साल के बाद चुनाव हों तो उनको भी बड़ी राहत मिलेगी।
  •  रोज-रोज के चुनावों में सबसे ज्यादा नुकसान स्कूल-कॉलेज के बच्चों का होता है, उनकी पढ़ाई में व्यवधान आता है। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक तो अक्सर मतदाता सूची बनाने से लेकर चुनाव में मतगणना तक सभी कार्यो के लिए बाध्य किए जाते हैं, जो देश के भावी-कर्णधारों के साथ एक खिलवाड़ है।
  •  इसके अलावा देश की विविधता के चलते चुनावों में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने और जातीय-उन्माद बढ़ने की भी संभावना बहुत बढ़ जाती है, जो सरकारों के लिए सिरदर्द और समाज के लिए अभिशाप बन जाती है। यदि वास्तव में संसद, चुनाव आयोग, राजनीतिक दल और जनता इस सुझाव पर संजीदगी से विचार करें तो पूरे देश में सभी संवैधानिक संस्थाओं के चुनाव एक साथ जरूर कराए जा सकते हैं। इससे भारतीय लोकतंत्र न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाएगा, बल्कि संभवत: वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बनने की दिशा में एक मजबूत कदम भी बढ़ाएगा
  • यदि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होने लगें तो सरकारी खजाने के धन की भी बचत होगी और राजनीतिक दलों के धन की भी।
  •  राजनीति की शह से होने वाले भ्रष्टाचार में भी कमी आ सकती है।
  • एक लाभ यह भी होगा कि राजनीतिक दलों को रह-रह कर चुनाव की मुद्रा में आने की जरूरत नहीं रहेगी और वे सारा ध्यान अपने एजेंडे पर केंद्रित कर सकेंगे। 
  • कुछ राज्यों में विधानसभा भंग होने के कारण एक साथ चुनाव होने का सिलसिला थम गया और अब यह स्थिति है कि देश में हर चार-छह माह के अंतराल पर कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। लोकसभा व विधानसभाओ के एक साथ चुनाव का आयोजन इस पर लगाम लगाएगा

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