क्यों खबरों में
दिल्ली हाईकोर्ट ने दवा कंपनियों को राहत देते हुए ‘फिक्स्ड डोज कॉम्बीनेशन’ (एफडीसी) दवाओं पर प्रतिबंध लगाने वाली केंद्र की अधिसूचना को खारिज कर दिया है. यह अधिसूचना इसी साल मार्च में जारी की गई थी| केंद्र सरकार ने ऐसी 344 दवाओं पर प्रतिबंध लगाने की अधिसूचना जारी की थी. दवा कंपनियों ने इसकी वैधता को चुनौती दे दी थी.
क्या होती है FDC (Fixed dose combination)
- एफडीसी दो या इससे अधिक दवाओं का एक निश्चित अनुपात में मेल होता है
- कोरेक्स, विक्स एक्शन-500, सेरेडॉन और डी कोल्ड टोटल जैसी दवाएं इसी वर्ग में आती हैं.
- कई एफसीडी बढ़िया काम करते हैं और वे सुरक्षित भी होते हैं. लेकिन भारत में इन दवाओं पर हुए एक अध्ययन में पाया गया कि यहां हजारों ऐसे एफडीसी भी मौजूद हैं जिनके फॉर्मूलेशन को राष्ट्रीय दवा नियामक यानी द सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन ने कभी मंजूरी ही नहीं दी.
पक्ष और विपक्ष
सरकार ने दलील दी थी कि इन दवाओं पर प्रतिबंध जनहित में लगाया गया है क्योंकि ये सेहत के लिए सुरक्षित नहीं हैं और दुनिया के अन्य देशों में भी इन पर रोक है. इस पर अदालत ने कहा कि सरकार औषधि और प्रसाधन अधिनियम की धारा-26 (ए) की शक्तियों का इस्तेमाल तभी कर सकती है जब कोई उत्पाद उपभोक्ता के लिए जोखिम पैदा कर रहा हो. दवा कंपनियों ने अपनी याचिकाओं में सरकार द्वारा धारा-26 (ए) की शक्तियों के इस्तेमाल को चुनौती दी थी.
भारत और FDC
भारत की फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री में एफडीसी को नई चीज माना जाता है और इन्हें खूब प्रमोट किया जाता है. ये दवाएं ज्यादातर होलसेलरों, केमिस्टों और अपनी डिस्पेंसरी खोलकर बैठे डॉक्टरों के पास मिलती हैं. इनमें से कुछ अस्पतालों में भी इस्तेमाल होती हैं| कई साल तक इस मुद्दे पर किसी का ध्यान नहीं गया. फिर,
- 2007 में राष्ट्रीय नियामक ने ऐसी 294 दवाओं पर बैन लगा दिया. वजह बताई गई कि उन्हें सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग लाइसेंस मिला था, मार्केटिंग की मंजूरी नहीं
- ये दवाएं बनाने वाली कंपनियां अदालत गईं और अदालत में मामला अब भी लटका हुआ है.
- केंद्र सरकार ने नियामक के मानदंड और क्षमताओं की पड़ताल करने के लिए एक कमेटी बनाई थी. 2012 में इसने अपनी रिपोर्ट दी और एफडीसी की मंजूरियों सहित कई मोर्चों पर खामियों को रेखांकित किया.
- कमेटी ने पाया कि राज्य स्तर की एजेंसियां ऐसे नए फॉर्मूलेशनों के लिए भी मैन्युफैक्चरिंग लाइसेंस दे रही थीं जिन्हें कभी मंजूरी ही नहीं दी गई| रिपोर्ट के शब्दों में ‘इसका नतीजा यह है कि बाजार में मौजूद कई एफडीसी की यह जांच ही नहीं हुई है कि वे कितने असरदार और सुरक्षित हैं. यह मरीजों के लिए खतरनाक हो सकता है| कई फॉर्मूलेशन तो मेडिकल साइंस के हिसाब से जरूरी भी नहीं थे.
बिना किसी मंजूरी के बाजार में इतने सारे एफडीसी क्यों हैं
इसके बारे में रिपोर्ट में एक संभावना जताई गई थी. इसके मुताबिक नई दवाओं से संबंधित कानून में मई 2002 में हुए बदलाव से पहले कुछ अस्पष्टता थी और हो सकता है इसकी वजह से इस चलन को प्रोत्साहन मिला हो.
Need to overhaul pharmaceutical laws
दवाओं के एक बड़े निर्यातक भारत में दवाइयों से संबंधित नियम-कानूनों में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है. जिन एफडीसी को मंजूरी नहीं मिली है उन्हें बैन किया जाना चाहिए और उनकी जगह मरीजों को दूसरी दवाइयां दी जानी चाहिए. भारत में दवाइयों के नियम-कानून आम लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बनने चाहिए न कि दवा निर्माताओं के व्यावसायिक हितों के हिसाब से.