सामाजिक लोकतंत्र : वंचितों के अधिकारों हेतु, गरीबी निवारण में कितने उपयोगी गरीबी के आंकड़े?

- इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की हालिया बैठक के लिए तैयार एक रिपोर्ट में भारत में गरीबी का बहुत कमतर आंकड़ा पेश किया गया है। वर्ष 2011-12 के 21.4 फीसदी के आधिकारिक आंकड़े की तुलना में इस रिपोर्ट में 12.4 फीसदी का आंकड़ा पेश किया गया है।

- बैंक की गरीबी रेखा में मोटेतौर पर सालाना 32,000 रुपये का आंकड़ा रखा गया है जो दादा भाई नौरोजी द्वारा 150 साल पहले पेश किए गए 16 से 32 रुपये सालाना के आंकड़े के 1000 से 2000 गुना है। नौरोजी ने यह राशि प्रवासी कुलियों के भोजन को आधार बनाकर तय की थी।

- इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार एंगस डीटन को दिया गया है जिन्होंने इस बहस में अच्छा खासा योगदान किया है। उम्मीद है कि इससे इस आकलन में जुटे शोधकर्ताओं के बीच एक नई प्रेरणा पैदा होगी।

- गरीबी के अनुमान के साथ यह लगाव सार्वजनिक नीति के लिए एक बड़ी चिंता लेकर आता है। हमारे संविधान ने एक ऐसे समाज को सार्वभौमिक मताधिकार देकर साहसिक कदम उठाया था जो मोटेतौर पर गरीब, सांस्कृतिक रूप से विविधतापूर्ण और पदानुक्रम व्यवस्था वाला रहा है। ऐसे निर्णयों ने ही समय के साथ देश में गरीबों और वंचितों को अधिकार संपन्न बनाया।
- इस बात ने विभिन्न सरकारों को मजबूर किया कि वे वृद्घि की प्रक्रिया में समावेशन को तवज्जो दें। इसमें नए रोजगार अवसर तैयार करने से लेकर मुख्यधारा की राजनीति में वंचितों की भागीदारी और सामाजिक स्तर पर भेदभाव खत्म करना तथा सामाजिक सुरक्षा मुहैया करना, ये सभी बातें शामिल हैं।

- बहरहाल समावेशन के हिसाब से देखा जाए तो जन नीति के नतीजे निराश करने वाले हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि गरीबी उन्मूलन के लिहाज से वृद्घि और व्यय संबंधी निवेश ऐसी समांतर धारा साबित हुआ जो आपस में कभी नहीं मिले। 
- हमें यह समझना होगा कि वृद्घि समय की जरूरत है लेकिन वह गरीबी और बेरोजगारी को हल करने की कोई पूर्व शर्त नहीं है। वृद्घि के प्रभाव को निचले सिरे तक पहुंचने में बहुत वक्त लगता है और समाज के निचले तबके की आय में बहुत अधिक इजाफे की आवश्यकता है। इसलिए क्योंकि अमीरों और गरीबों के बीच विषमता बढ़ी है। 
- अधिक खतरनाक बात यह है कि भौगोलिक स्तर पर भी अमीर और गरीब क्षेत्रों के बीच का अंतर बढ़ा है। हमें विकास संबंधी हस्तक्षेप और राजनीतिक सहयोग की आवश्यकता है ताकि समावेशन को तेज किया जा सके।

-> गरीबों की मदद के लिए बनने वाली नीति में न केवल बीपीएल परिवारों पर ध्यान दिया जाना चाहिए बल्कि उन लोगों पर भी जिनके किसी बड़े संकट की स्थिति में इसमें फिसल जाने का जोखिम है। ऐसे में उनकी मदद तीन स्तरीय होनी चाहिए। 
- 1. आय और रोजगार के विकल्प मजबूत बनाए जाने चाहिए, 
2.गुणवत्तापूर्ण जनसेवाओं में निवेश होना चाहिए, खासतौर पर स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास और 
3.पर्यावरण के क्षेत्र में तथा संवेदनशीलों को सुरक्षा ढांचा मुहैया कराया जाना चाहिए।

- सामाजिक रूप से पिछड़े अनुसूचित जाति एवं जनजाति के करीब 80 फीसदी लोगों के पास कोई संपत्ति नहीं है और वे कौशल से भी वंचित हैं। उनके तथा उनके बच्चों के लिए अवसर तभी हैं जब वे एक जगह से दूसरी जगह जाकर काम तलाशें। बिना नीतियों में बदलाव किए उनका कौशल विकास और वित्तीय समावेशन संभव नहीं। इन दिनों अल्पसंख्यकों के साथ जो व्यवहार है वह भी इस राह को कठिन बनाता है।

- केवल परिवारों और लोगों की मदद करना पर्याप्त नहीं है। जनसेवाओं की गुणवत्ता सुधारना भी उतना ही अहम है। 
- शिक्षा, स्वास्थ्य और जलापूर्ति जैसी सेवाओं तक पहुंच में असमानता तो आय की असमानता से भी ज्यादा बुरी है।

- इनमें से कोई बात छिपी नहीं है और गरीबी निवारण के लक्ष्यों तथा कार्यक्रमों का जिक्र सभी पंचवर्षीय योजनाओं में रहा है। अब जबकि नीतिगत लक्ष्य मेक इन इंडिया तथा कारोबारी सुगमता पर केंद्रित हो रहा है और विदेशी निवेश जुटाने की जुगत लगाई जा रही है तो गरीबी उन्मूलन नीतियों का दोयम होते जाना स्वाभाविक है।

- इस मोड़ पर सही नीति मददगार साबित हो सकती है। कुछ विकासोन्मुखी अधिकार विशिष्ट कानूनों में निहित हैं जबकि कुछ अन्य का संरक्षण सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार की उदार व्याख्या के तहत किया है।
- सामाजिक लोकतंत्र का इकलौता रास्ता वंचितों के अधिकारों के लिए काम कर रहे नागरिक समाज संगठनों और उन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए काम करने वाली सक्रिय न्यायपालिका के पास ही है।

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