जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में खाद्य सुरक्षा और पोषण

सन्दर्भ :- विश्व की आबादी में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन को देखते हुए दुनिया भर में खाद्य उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत

2050 तक विश्व की आबादी लगभग 9.5 अरब हो जाएगी, जिसका स्पष्ट मतलब है कि हमें दो अरब अतिरिक्त लोगों के लिए 70 प्रतिशत ज्यादा खाना पैदा करना होगा। इसलिए खाद्य और कृषि प्रणाली को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाना होगा और ज्यादा लचीला, उपजाऊ व टिकाऊ बनाने की जरूरत होगी। इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का उचित इस्तेमाल करना होगा और खेती के बाद होने वाले नुकसान में कमी के साथ ही फसल की कटाई, भंडारण, पैकेजिंग और ढुलाई व विपणन की प्रक्रियाओं के साथ ही जरूरी बुनियादी ढांचा सुविधाओं में सुधार करना होगा।

इसे देखते हुए इस साल के विश्व खाद्य दिवस का मुख्य विषय रखा गया है, ‘जलवायु बदल रही है। खाद्य और कृषि को भी बदलना चाहिए।’ भूख की चुनौतियों के संबंध में लोगों को जागरूक बनाने और भूख के खिलाफ लड़ाई के लिए जरूरी कदम उठाने के वास्ते प्रोत्साहित करने के लिए 1979 से ही 16 अक्टूबर को इसका आयोजन किया जा रहा है। 2030 तक ‘शून्य भूख’ के स्तर को हासिल करने का वैश्विक लक्ष्य है, जिसे जलवायु परिवर्तन-खाद्य सुरक्षा का हल निकाले बिना हासिल नहीं किया जा सकता।

खाद्य सुरक्षा से सुरक्षित और पोषक खाद्य पदार्थों की पर्याप्त मात्रा तक पहुंच/उपयोग की क्षमता का पता चलता है; हालांकि संबंधित चुनौतियों से अमीर/गरीब देशों की शहरी/ग्रामीण आबादी समान रूप से प्रभावित हो रही है। एफएओ का अनुमान है कि 2014-16 के दौरान लगभग 19.46 करोड़ भारतीय (15.2 प्रतिशत) को कम भोजन मिला।

जलवायु परिवर्तन-संकट और खाद्य/पोषण असुरक्षा की मुख्य वजह

21वीं शताब्दी के अंत तक वैश्विक तापमान में 1.4-5.8 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है, जिससे खाद्य उत्पादन में खासी कमी देखने को मिलेगी। इसरो के मुताबिक हिमालय के ग्लेसियर पहले से कम हो रहे हैं (जो 15 साल में लगभग 3.75 किलोमीटर कम हो चुके हैं) और वे 2035 तक गायब हो सकते हैं। यह जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है, जिसमें रेगिस्तान का बढ़ना शामिल है और इससे सूखा, चक्रवात, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी सामने आ रही हैं। इनका असर अक्सर सबसे ज्यादा गरीब (अधिकांश किसान) लोगों पर पड़ता है और इस प्रकार 2030 तक भूख को खत्म करने के हमारे लक्ष्य के सामने यह बड़ी चुनौती है! इस प्रकार टिकाऊ विकास के लिए जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित कार्ययोजना काफी अहम है। यह विडंबना है कि कृषि को जलवायु परिवर्तन में बड़ा अंशदाता माना जाता है। 2 अक्टूबर, 2016 को भारत ने पेरिस समझौते पर मुहर लगा दी, जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से लड़ना और वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 2 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे रखना है।

हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा था, ‘दुनिया जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि, प्राकृतिक आपदाओं को लेकर चिंतित है। पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने मानव विकास और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की जरूरत के बीच सही संतुलन को समझा था। मानव की दौड़ में अब भौतिक विकास के प्रकृति पर विनाशकारी प्रभाव को समझा गया है।’

चूंकि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्दि जलवायु परिवर्तन की बड़ी वजह है, इसलिए पर्यावरण में सुधार के लिए उनके उत्सर्जन में कमी सुनिश्चित करना जरूरी है। भारतीय कृषि के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन के अहम मुद्दों में विभिन्न जलवायु स्थितियों के साथ राष्ट्र की विशालता; विभिन्न फसलें/कृषि प्रणालियां; मानसून पर अत्यधिक निर्भरता; जलवायु परिवर्तन से जल की उपलब्धता प्रभावित होना; छोटे-छोटे खेत; मुंडेर की व्यवस्था में कमी; जोखिम प्रबंधन की रणनीतियों की कमी; बारिश से जुड़े ज्यादा प्रभाव (सूखा/बाढ़, विशेष रूप से तटीय क्षेत्रों में); कीटों/बीमारियों के ज्यादा मामले; ऑक्सीकरण का मिट्टी की उर्वरता पर तेजी से प्रभाव और जैव विविधता का विलुप्त होना शामिल है। भले ही भारत अनाज के उत्पादन में आत्म-निर्भर होने में सफल रहा है, लेकिन यह परिवारों की पुरानी खाद्य असुरक्षा का हल निकालने में संभव नहीं हुआ है। उम्मीद है कि जलवायु परिवर्तन से खाद्य असुरक्षा बढ़ेगी, ऐसा विशेष रूप से भूख/कम पोषण वाले क्षेत्रों में देखने को मिलेगा।

हमारे देश के लिए जहां अधिकांश आबादी गरीब है और लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना खासा अहम है। जहां खाने की उपलब्धता प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से परिवार/व्यक्तिगत आय से प्रभावित होती है, वहीं खाद्य का इस्तेमाल पेयजल की उपलब्धता में कमी से बिगड़ जाता है और इसका स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है। भारत पर वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी की मार पड़ने की संभावना है, जिससे 1.2 अरब लोग प्रभावित हो रहे हैं। ये लोग विशेषकर बाढ़/चक्रवात/सूखा प्रभावित क्षेत्रों के हैं। जलवायु परिवर्तन ‘भूख के जोखिम को कई गुना बढ़ाने’ के लिहाज से अहम है, जिससे खाद्य/पोषण सुरक्षा के सभी अंग प्रभावित हो सकते हैं जिसमें खाद्य की उपलब्धता, पहुंच, इस्तेमाल और स्थायित्व शामिल हैं।

खाद्य सुरक्षा को हासिल करना और बरकरार रखना दुनिया भर में बड़ी चुनौतियों में से एक हैं। खाद्य सुरक्षा की योजनाओं में प्राथमिकता के आधार पर समस्याओं को प्रभावी तौर पर दूर करना, खाद्य पदार्थों का पर्याप्त भंडारण/वितरण के साथ ही उपचारात्मक उपायों की निगरानी शामिल है। अपनाए गए उपायों में विशेष रूप से शुष्क/अर्ध शुष्क क्षेत्रों में फसल पैटर्न, नवीन प्रौद्योगिकी और जल संरक्षण अहम हो गया है। इसलिए, कार्बन में कमी और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने की दिशा में आवश्यक प्रयास होने चाहिए। इस संबंध में जागरूकता फैलाने और हर कदम पर जनता की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है।

भारत में खाद्य/पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा की गई कुछ पहलों में परंपरागत कृषि विकास योजना, प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना, सॉयल हेल्थ कार्ड/सॉयल हेल्थ प्रबंधन योजना, प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना, अन्नपूर्णा स्कीम, मनरेगा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, आईसीडीएस और एमडीएमएस आदि शामिल हैं। हालांकि, इन सभी कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन और विशेषकर संवेदनशील समूहों के लिए खामियों को दूर करने की जरूरत है। इसके अलावा हमारे मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और सही इस्तेमाल के साथ ही पर्यावरण अनुकूल प्रक्रियाओं को अपनाकर पर्यावरण प्रदूषण को कम करना भी खासा अहम है, जिससे जंगलों की रक्षा हो और हर स्तर पर खाद्य पदार्थों की बर्बादी से बचा जा सके जो खेतों से खाने की थाली तक बेहद जरूरी है। वनस्पति खाद्य पदार्थों बनाम पशु खाद्यों पर ज्यादा जोर देने के अलावा खरीद/पकाने में बर्बादी के साथ ही खाद्य पदार्थों के उचित भंडारण और उनके उचित इस्तेमाल से इससे बचा जा सकता है।

यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबिल डेवलपमेंट समिट-2015 में वैश्विक नेताओं को ‘कचरे’ (सब्जियों के कचरे, खराब करार दिए गए सेब/नाशपाती और खराब ग्रेड की सब्जियां) से बने व्यंजन परोसे गए। यह अनचाही/खराब खाद्य पदार्थों का अनुकरणीय इस्तेमाल है, जो वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों की बर्बादी और उसके हानिकारक प्रभावों को रोकने के लिहाज से अहम है; अन्यथा यह खाना बर्बाद हो जाएगा, सड़ जाएगा और मीथेन गैस निकलेगी, जो एक ग्रीनहाउस गैस है.

‘जलवायु-स्मार्ट खाद्य प्रणाली’ में निवेश की जरूरत है, जो खाद्य सुरक्षा पर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए जरूरी है। ज्वार-जो सूखा प्रतिरोधी फसल है, जिसके लिए कुछ बाहरी इनपुट की जरूरत होती है, इसलिए यह मुश्किल हालात में भी बढ़ सकती है। यही वजह है कि इसे ‘भविष्य की फसल’ कहा जाता है। यह पोषक अनाज कम समय (65 दिनों) में पैदा होता है और इसका सही से भंडारण किया जाए तो इसे दो साल और इससे ज्यादा समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। धान (धान के खेतों में ज्यादा पानी भरा होने के कारण ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है) की तुलना में ज्वार सीओ2 के उत्सर्जन को कम रखकर जलवायु परिवर्तन के असर को कम रखने में मददगार होती है, जबकि गेहूं उत्पादन (गर्मी के प्रति संवेदनशील फसल) विपरीत प्रभावों के लिए जिम्मेदार है। अनुकूलन की व्यापक क्षमता के कारण ज्वार नमी, तापमान और बंजर भूमि सहित तमाम विभिन्नताओं का सामना कर सकती है। इसके अलावा ज्वार का करोड़ों लोगों विशेषकर छोटे/सीमांत किसानों और वर्षा की कमी वाले/दूरदराज के आदिवासी इलाकों के लोगों को खाद्य और आजीविका उपलब्ध कराने से आर्थिक योगदान काफी ज्यादा है।

 

पोषण और कार्ययोजना पर रोम घोषणा पत्र (नवंबर, 2014) में खाद्य/पोषण सुरक्षा विशेषकर खाद्य उत्पादन की मात्रा, गुणवत्ता और विभिन्नता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने; सुझाई गई नीतियों/कार्यक्रमों को लागू करने और संकट वाले क्षेत्रों में खाद्य आपूर्ति संस्थानों को मजबूत बनाने की जरूरत पर जोर दिया गया।

इस प्रकार जलवायु परिवर्तन में कमी लाना एक वैश्विक मुद्दा है; आजीविक/खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उचित अनुकूलन की रणनीतियों को लागू करना जरूरी है। भारत को अपनी बढ़ती आबादी के लिए खाद्य/गैर खाद्य जरूरतों को पूरा करने के वास्ते अपने पर्यावरण को बचाए रखने की जरूरत है। इसमें मृदा संरक्षण पर जोर देने, प्राकृतिक संसाधनों का सही इस्तेमाल की जरूरत है, जिसमें बारिश के पानी से सिंचाई भी शामिल है। खाद्य/पोषण सुरक्षा के लिए लोगों में फसल उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों के प्रति जागरूकता फैलाना सबसे अहम समाधान है।

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