यह महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष है। सूदूर चम्पारण में निल्हे कोठी के किसानों को अंग्रेजों ने व्यापार की सफलता के लिए दास बना रखा था। अप्रैल 1917 में गांधी ने मोतिहारी पहुंचकर किसानों केदासता की मुक्ति का बिगुल फूंका। उसकी धमक से अपराजेय अंग्रेजों की सल्तनत हिल गई। आखिरकार चम्पारण सत्याग्रह के तीस वर्ष बाद अग्रेजों को बोरिया बिस्तर बांधकर जाने को विवश होना पड़ा। सत्याग्रहों की सबलताऔर आत्मप्रयोगों के आधार पर महात्मा गांधी ने आजाद भारत को आत्मनिर्भर बनाने का सपना बुना था। उनमें सहकारी उद्यमिता को प्रमुख था। वह भारत को सक्षम एवं स्वावलंबी देखना चाहते थे। उन्हें पता था कि गांवों केस्वभाव में आपसी तालमेल है। सहयोगी चरित्र है। इसलिए ग्रामीणों के बीच सहकारी उद्यमिता का प्रसार आसान है। उन्होंने गांवों का विकास सहकारिता से करने की पैरवी की थी। राष्ट्रपिता के सहकारिता से प्रेम का नतीजा रहाकि आजादी के बाद खाली हुए उनके ज्यादातर अनुयायियों ने गुजरात और महाराष्ट्र में सहकारी आंदोलन का दामन थाम लिया। यही काम पंजाब के किसानों ने भी किया। और फिर यह पूरे देश में फैलता गया। गांधीजी नेभारतीय समाज और गांवों का अध्ययन सूक्ष्मता से किया था और पाया था कि सहकारिता उनके सादगी वाले प्रयोग के ज्यादा करीब है।
दरसल,सहकारी उद्यमिता का ध्येय लाभ कमाने के साथ समतामूलक समाज की स्थापना रहा है। सहकारी उद्यमिता का लाभांश भागीदारों के बीच एक निश्चित अनुपात में बांटे जाने की सुनिश्चितता रहती है। इसकामालिकाना हक किसी एक या सीमित व्यक्तियों तक बंधा नहीं रहता है। यह लोकतांत्रिक मूल्यों से चलता है। मसलन किसी सहकारी उपक्रम में बड़े से बड़े अंशधारक यानी निवेशकर्ता के पास सबके समान एक ही वोट काअधिकार होता है। जबकि मलिकाना हक वाले अन्य उद्यमी व्यवस्थाओं में एक अथवा सीमित संख्या के मालिकों तक ही सीमित होता है। सहकारिता की इन्हीं खूबियों की वजह से वर्ष 2012 में 97वां संविधान संशोधन कियागया। इसमें सहकारिता को भारतीयों के मौलिक अधिकार में शामिल कर लिया गया है। इस संशोधन के जरिए वर्षों से सहकारी संस्थाओं पर काबिज एमपी-एमएलए की छुट्टी होनी थी। लेकिन अदालत में इसे चुनौती दे दी गई।
महात्मा गांधी के सपनों के अनुरुप आज भारत भी दुनिया के प्रमुख सहकारी देशों में शामिल है। भारत मे सहकारी उपक्रमों की संख्या आठ लाख तैंतीस हजार है। सहकारी संस्थाएं प्राथमिक कृषि समिति से लेकर दुग्ध व उर्वरकउत्पादन, विनिर्माण, वितरण और विपपण के जैसे सैकड़ों कारोबार में सक्रिय हैं। इसके जरिए लोगों को व्यापक रोजगार मिल रहा है। बेरोजगारी आने वाले दिनों में बड़ी समस्या बने जा रही है। अगर सहकारी संस्थाएं सहभागिताको विकसित करके रोजगार की समस्या का समाधान कर रही हैं। इसका नतीजा है कि लघु व सुक्ष्म उद्योग के लिए चलने वाली खादी ग्रामोद्योग जैसी संस्थाओं को मूलभूत चरित्र सहकारिता से मेल खाता है। सहकारिता कीखुबियों का नतीजा है कि देश के लगभग 95 प्रतिशत गांवों में सहकारी संस्थाओं की पहुंच बनी हुई है। देश में सहकारी संघों की सर्वोच्च संस्था भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआई) के मुख्य अधिशासी एन. सत्यनारायणबताते हैं कि सहकारिता के व्यापक प्रचार प्रसार और सहकारी संस्थाओं के कामकाज में आने वाली दिक्कतों को दूर करने के लिए सहकारिता को स्कूली पाठ्यक्रम में अनिवार्य रुप से शामिल किया जाना चाहिए। महात्मा गांधी केचम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में सरकार को इस बारे में फैसला कर लेना चाहिए।
सत्तर के दशक में हरित क्रांति लाने और खेतों को फसल से लहलहाने में सहकारी उद्यमिता की भूमिका महत्वपूर्ण रही। उसके बाद “अमूल“ जैसी सहकारी संस्था के जरिए भारत में श्वेत क्रांति लाना संभव हुआ। भारत सबसेबड़ा दुध उत्पादक देश बन गया। आज लगभग सभी प्रमुख राज्यों में सहकारी उद्यमिता के जरिए उत्पादित दुग्ध के मशहूर ब्रांड बाजार में प्रचलित हैं। मसलन बिहार में सुधा, राजस्थान में सरस तो मध्यप्रदेश का सांची दुग्ध केस्वाद की धमक है। सहकारिता की इन खुबियों को स्कूली स्तर पर बताने के भावी पीढी को संवारने में मदद मिलेगी। श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज कूरियन की सादगीपूर्ण जीवन बताता है कि सहकारिता गांधीजी के सपनों केकितने करीब रहा है। दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक उद्यम के प्रमुख होने के बावजूद डॉ वर्गीज कूरियन अपने आखिरी दिनों में महज पांच हजारे रुपए के वेतन से आजीविका चलाते रहे।
सहकारिता का डंका सिर्फ भारत में ही नहीं बज रहा है बल्कि नीदरलैंड, फीनलैंड और नार्वे जैसे विकसित देशों के अर्थतंत्र की मजबूती में सहकारिता का योगदान बड़ा है। यूरीपीय देशों के अलावा चीन, जापान और वितयनाम कीतरक्की में भी सहकारी संस्थाएं खास योगदान कर रही हैं। बीते माह वियतनाम की राजधानी होनोय में आयोजित एशिया-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के देशों के सहकारिता मंत्रियों के सम्मेलन में सहकारिता की सफलता औरभविष्य का खाका पेश किया गया। उसके मुताबिक दुनिया भर में सहकारी संस्थाओं के जरिए रोजगार पाने वालों की संख्या बहुराष्ट्रीय कंपनी की उद्यमिता से रोजगार पाने वालों की तुलना में कहीं अधिक है।
सम्मेलन में प्रस्तुत अंतर्राष्ट्रीय सहकारी एलायंस के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में सहकारी उद्यमी संगठनों की कुल संख्या पचीस लाख है जिसके डेढ़ करोड़ से ज्यादा लाभांश धारक हैं। जिससे से दो सौ पचास करोड़ ज्यादालोगों की आजीविका चल रही है। वियतनाम सम्मेलन का मकसद संयुक्त राष्ट्र की ओर से निर्धारित स्थायी विकास लक्ष्य 2030 को हासिल करने में सहकारिता की भूमिका तय करना था। इसमें पारित प्रस्ताव में दुनिया भर मेंसहकारी उपक्रमों की संख्या बढाकर 40 लाख तक पहुंचाने और इसके दायरे में दो अरब से ज्यादा आबादी को ले आने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। सम्मेलन भारत के प्रतिनिधि बने राज्यसभा सांसद एवम् एनसीयूआई केअध्यक्ष डॉ. चंद्रपाल सिंह यादव के मुताबिक सदस्य देशों में सहकारी उपक्रमों के अनुकुल माहौल बनाने के सतत प्रयास जारी रखने पर जोर दिया गया। भारत में 2006 से सहकारी उद्यमिता पर मिलने वाले कर छूट को खत्म करदिया गया है। इससे सहकारिता के विकास को लेकर उत्साहवर्धक नतीजे लाने में दिक्कत आ रही है। इसे लेकर सहकारी संघों क नेतृत्व और सरकार के बीच सतत संवाद का सिलसिला जारी है।
गौरतलब है कि बीते शताब्दी की दशा और दिशा तय करने के लिए जिस तरह महात्मा गांधी ने बीती सदी में ठीक इसी वर्ष 1917 में जिस तरह से चम्पारण सत्याग्रह किया था। उसी ढंग का ठोस प्रयास यदि मौजूदा वर्ष 2017 मेंकिया जाता है, तो यह पूरी इक्कीसवीं सदी को संवारने में मददगार साबित होगा। इस लिहाज से संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थायी विकास लक्ष्य 2030 को हासिल करने के लिए सहकारिता की ओर से किया जा रहा प्रयास महत्वपूर्ण हैं।इस प्रयास में सहकारिता की ओर से दुनिया की आबादी को खाद्य सुरक्षा के दायरे में लाने के लिए उद्मशील रहना, आर्थिक विकास करना, पर्यावरण को बचाना और मानवीय मूल्य के साथ काम जैसे मसले शामिल हैं। चम्पारणसत्याग्रह के शताब्दी वर्ष पर महात्मा गांधी की भावना के अनुरुप सहकारिता अगर गरीबी मुक्ति, भूख मुक्ति, बेहतर स्वास्थ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, असमानता का खात्मा, स्वच्छ जल व शौचलय, वैकल्पिक उर्जा, स्वावलंबीसमाज व शहर जैसे मसलों को लेकर आगे बढ़ती है, तो जाहिर तौर पर मानव सभ्यता को सजाने-संवारने में मदद मिलेगा। सहकारिता की ओर से पूर्व में हासिल उपलब्धियों के मद्देनजर यह काम कठिन नहीं लगता है।
साभार : विशनाराम माली