राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) : debate summary by GShindi.com (contributed by Mohit Rajpoot)
मानवाधिकार की पृष्ठभूमि
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मानव-अधिकारों के हनन की पृष्ठभूमि में 1948 में वैश्विक समुदाय ने मानव के मूलभूत अधिकारों हेतु सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये, जिसमें भारत भी सम्मिलित था। परन्तु इसके विधिक क्रियान्वयन और मानव अधिकारों हेतु कानूनी संस्था के निर्माण में 40 वर्ष से भी अधिक समय लगा और तत्पश्चात मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के द्वारा एक सांविधिक संगठन के रूप में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया गया। आयोग मानवाधिकार संबंधी मामलों की जांच कर अपनी सिफारिशें देता है।
क्यों खबरों में
हाल ही में आयोग ने अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से किये जाने हेत अधिक शक्तियां दिये जाने हेतु सरकार/उच्चतम न्यायालय से गुहार लगाई है।
आयोग के सम्मुख व्याप्त चुनौतियां एवं उसकी मांग का वृहद मूल्यांकन निम्न प्रकार किया जा सकता है-
1- आयोग की सलाहकारी प्रवृति- आयोग द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में पीडि़त पक्ष को मुआवजा दिये जाने संबंधी 46 फीसदी मामलों पर सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गयी है। मणिपुर सरकार ने फर्जी एन्काउंटर मामले में आयोग की सिफारिशें मानने से इंकार कर दिया। अत: आयोग की मांग है कि आयोग की सिफारिशों को बाध्यकारी बनाया जाये तथा NHRC को अपने निर्णय की अवमानना (कन्टेम्प्ट) करने के लिए दोषी को दण्डित करने का अधिकार मिलना चाहिये।
इस संबंध में विचारणीय है कि 1. विश्व के किसी भी राष्ट्र के मानवअधिकार आयोग की सलाह सरकार पर बाध्यकारी नहीं है, 2. प्रकरण में जांच के दौरान NHRC संबंधित पक्षों को नहीं सुनती है और सरकार की रिपोर्टों का अध्ययन कर संभावना (प्राबेबेलिटी) के आधार पर ही सिफारिश करती है। अत: वैश्विक चलन के विपरीत आयोग की सिफारिशें बाध्यकारी होने से इससे जुड़े मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील होने लगेंगी जिससे त्वरित एवं संस्ता न्याय प्रदान करने की आयोग का उदृदेश्य अधूरा रह जायेगा।
सुझाव- यह आवश्यक है कि आयोग अपनी सिफारिशें पुष्ट साक्ष्यों/ पूर्ण जांच कार्यवाही के साथ स्पष्ट रूप में दे और सरकार उस पर गम्भीरता से विचार करे। आयोग की जांच रिपोर्टों और सिफारिशों तथा उन पर सरकार द्वारा की गयी कार्यवाही को सार्वजनिक किया जाये ताकि उन पर अमल करने हेतु सरकार पर दबाव बनाया जा सके। इसके अतिरिक्त् आयोग को अपनी सलाह को मनवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार प्राप्त है और कई मामलों में आयोग ने कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है।
2- जांच का क्षेत्राधिकार- आयोग की जांच का क्षेत्राधिकार सीमित है। वह एक वर्ष से पुराने मामलों की जांच नहीं कर सकता है। अधिनियम के पैरा 1 के अनुसार आयोग का क्षेत्राधिकार जम्मू एवं कश्मीर राज्य में लागू नहीं होता है। अधिनियम के पैरा 19 के अनुसार सेना और और पैरामिलेट्री से जुड़े मामलों में इसकी जांच की शक्ति सीमित है और ऐसे मामलों में आयोग केवल सरकारी रिपोर्ट के आधार पर ही अपनी सिफारिश दे सकता है।
सुझाव- ए-एम-अहमदी समिति ने आयोग को पर्याप्त एवं संतोषजनक कारण होने की दशा में एक वर्ष से अधिक पुराने मामलों में जांच करने की शक्ति प्रदान करने की सिफारिश की है। इसी समिति ने सशस्त्र बलों की परिभाषा में केवल सेना को रखे जाने तथा पैरामिलिट्री को इस परिभाषा से बाहर रखे जाने की सिफारिश की है। अत: इन प्रयासों से आयोग की शक्तियों में अपेक्षित वृद्धि की जा सकती है।
३- जांच की प्रणाली- ऐसी मांग की जाती रही है कि आयोग के पास मामलों की जांच हेतु एक विस्तृत मशीनरी हो। प्राय: आयोग अपनी जांच के लिए दूसरी एजेन्सियों से सेवायें लेता है या फिर सरकारों की आख्या पर निर्भर रहता है।
सुझाव- आयोग के पास एक प्रथक एवं स्वतंत्र जांच-खण्ड है, जो महत्वपूर्ण मामलों की जांच करता है। देशभर में तमाम प्रकार की जांच एजेन्सियां होने के बावजूद एक और नई तथा भारी-भरकम जांच मशीनरी आयोग की कार्यप्रणाली को जटिल एवं बोझिल बना देगी तथा इसके साथ ही विभिन्न एजेन्सियों के मध्य समन्वय की समस्या भी आ सकती है। अत: आवश्यकता है कि आयोग में पूर्व से व्याप्त जांच-खण्ड में योग्य अधिकारियों की संख्या बढायी जाये तथा इन्हें व्यापक जनहित व अन्य महत्वपूर्ण मुदृदे ही सौंपे जायें।
4-आयोग में नियुक्ति- आयोग के अध्यक्ष/सदस्यों की नियुक्ति एक समिति के माध्यम से सरकार करती है, अत: यह आरोप लगाया जाता है कि सरकार अपने व्यक्तियों को आयोग में बैठाकर आयोग को अप्रभावी कर देती है। इसके अलावा आयोग के सदस्यों के पद रिक्त रहते हैं तथा सरकार द्वारा नियुक्ति में विलम्ब किया जाता है। पिछले ढाई वर्षों से आयोग में सदस्य का पद रिक्त रहा तथा श्री के0जी0 बालाकृष्णनन के अध्यक्ष के रूप में सेवानिवृत्ति के पश्चात लगभग 8 माह तक अध्यक्ष पद रिक्त रहा। आयोग में मानवाधिकारों के जानकार दो व्यक्तियों के पदों पर अक्सर आई0ए0एस0/आई0एफ0एस0 आदि उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों अथवा मानवाधिकार क्षेत्र से बाहर के व्यक्तियों को भी सदस्य बना दिया जाता है, जिन्हें मानवाधिकारों का सूक्ष्म ज्ञान नहीं रहता है।
सुझाव- सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय को छोड़कर सभी संस्थाओं में नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है और इसके बावजूद अपनी इच्छाशक्ति के चलते चुनाव आयोग, कैग आदि संस्थाओं ने स्वतंत्र रूप से कार्य भी किया है, अत: सरकार द्वारा नियुक्ति को लक्ष्यों में बाधक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये फिर भी चूंकि मानवाधिकार से जुड़े अधिकांश मामलों में सरकार/पुलिस के विरूद्ध जांच की जाती है, अत: आवश्यक है कि इसकी नियुक्ति में सरकार की भूमिका को सीमित किया जाये तथा आयोग में नियुक्ति एक विस्तृत आधार चयन समिति द्वारा किया जाना चाहिये। मानवाधिकार के जानकार दो व्यक्तियों के चयन में सार्वजनिक रूप से प्रस्ताव मांगकर, सत्यनिष्ठा के साथ इस क्षेत्र से जुड़े लोगों को नियुक्त किया जाये। पदों को रिक्त् न रखा जाये तथा रिक्ति उत्पन्न होने की दशा में तुरन्त नियुक्ति की कार्यवाही की जाये।
5- राज्यों/जनपदों में आयोग का गठन- अधिनियम के प्रभावी होने के 20 वर्षों के बाद भी कई राज्यों में SHRC का गठन नहीं हो पाया है। जनपदों में जनपद स्तर की शाखा के गठन की कार्यवाही ठण्डे बस्ते में पड़ी हुई है।
उपाय- अवशेष राज्यों में SHRC का गठन किया जाये तथा जनपदों में आयोग की जनपदस्तरीय शाखायें खोली जायें, जिससे NHRC में मुकदमों की संख्या में कमी आयेगी और वह व्यापक जनहित से जुड़े महत्वपूर्ण मुदृदों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकेगा।
6-सिफारिशों का आधार बढ़ाया जाना- आयोग की भूमिका लगभग आर्थिक मुआवजे की सिफारिशों तक की सीमित रह गयी है। किसी व्यक्ति के जीवन का मूल्य आर्थिक रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता है। अत: आयोग द्वारा आर्थिक मुआवजे के साथ ही दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई की सिफारिश की जानी चाहिये
conclusion वस्तुत: अपने गठन के समय प्रतिवर्ष लगभग 100 मुकदमें प्राप्त करने वाला NHRC आज लगभग 1 लाख मुकदमें प्रतिवर्ष प्राप्त कर रहा है, जो आयोग पर बढ़ता हुआ जनविश्वास तथा लोगों में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता को प्रदर्शित करता है। अत:समय के साथ आयोग को सामयिक बनाकर आज की जरूरतों के अनुसार अनुकूल बनाना निसन्देह आवश्यक है। आज आयोग के सम्मुख सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनौती उसकी अभिवृत्ति की है। ऐसा प्रतीत होता है कि NHRC अपनी सीमाओं में बंधता जा रहा है। आयोग की कार्यप्रणाली नौकरशाही के रूप में तब्दील होने से रोकना, सकारात्मक अभिवृत्ति निर्माण के द्वारा प्रो-एक्टिव भूमिका का निर्वहन किया जाना, जो है उसी का सर्वोत्तम प्रयोग कर परिणामोन्मुख कार्य करने तथा मानवाधिकारों के व्यापक प्रचार-प्रसार की आज की आवश्यकता है।