चुनाव में धर्म और जाति के इस्तेमाल रोकने के कार्यान्वयन में चुनौती

सुप्रीम कोर्ट ने 21 साल बाद एक बार फिर भारतीय राजनीति के चुनावी मुद्‌दों की आचार संहिता तय करते हुए ऐतिहासिक फैसला दिया है लेकिन, सवाल यह है कि क्या यह फैसला दिशा-निर्देश की तरह काम करेगा या फिर व्यवहार में इसे कानूनी तौर पर लागू किया जा सकेगा?

Ø  अदालत ने कहा है कि चुनाव में कोई भी उम्मीदवार, उसका एजेंट या उम्मीदवार की तरफ से कोई और व्यक्ति मतदाता के धर्म, जाति, नस्ल और भाषा का हवाला देकर न वोट मांग सकता है न किसी को वोट देने से रोका जा सकता है।

Ø  चुनाव में धर्म के इस्तेमाल और जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के इस्तेमाल पर दिशानिर्देश तय करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जाति व धर्म के नाम वोट मांगना गलत है। दरअसल इस धारा के तहत चुनावी फायदे के लिए धर्म, जाति, समुदाय, भाषा आदि के इस्तेमाल को 'भ्रष्ट आचरण' बताया गया है

Ø  यह देश को चुनावी राजनीति की संकीर्ण गलियों से निकालकर एकता और धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक राजमार्ग पर लाने वाला कदम है।

Ø  Majority ने एक सार्वभौमिक नागरिक की बात की है जो संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर अपने व्यक्तिगत मामलों को सार्वजनिक जीवन से अलग रखता है और अपने विवेक के ऊपर दलगत तथ्यों को हावी नहीं होने देता |

माननीय न्यायमूर्तियों ने यह फैसला देते हुए टैगोर के उस राष्ट्रवाद का हवाला दिया है, जो तमाम संकीर्णताओं के पार वैश्विक मानवता के विशाल क्षितिज की ओर ले जाता है।

 तीन के मुकाबले चार जजों की तरफ से आए इस फैसले के साथ कई सवाल उठते हैं जिन पर विचार किए बिना चुनाव और राजनीतिक माहौल में अपेक्षित सुधार होता नहीं दिखता। सवाल यह है कि

Ø  क्या धर्म जाति और भाषा जैसे तमाम मुद्‌दों को पूरी तरह से राजनीति से बाहर कर पाना संभव है, जबकि महात्मा गांधी से लेकर भीमराव आंबेडकर व डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे धर्मनिरपेक्ष नेताओं तक ने राजनीति को प्राणवान करने के लिए धर्म के उदात्त मूल्यों का सहारा लिया और जाति को विमर्श का मुद्दा बनाया। यह बात इस फैसले से असहमति जताने वाले तीन जजों ने भी उठाई है।

Ø  यंहा सवाल यह भी है की जिस सार्वभौमिक नागरिक की majority ने बात की है क्या वो सम्भव है | वो परिस्थितियाँ जिसकी वजह से कुछ समुदाय या जाती जो हाशिये पर है और वो अगर  उन्हीं परिस्थितियों को एक मुद्दा बनाकर सार्वजनिक जीवन में आना चाहती है ,  तो क्या यह फैसला बाधक नहीं बनेगा |

निश्चित तौर पर इस फैसले पर गहन राजनीतिक विमर्श होना चाहिए और इससे कुछ सूत्र निकाले जाने चाहिए। इस फैसले के अम्ल के लिए सामाजिक सन्दर्भ को देखना होगा | निश्चितत: पंथ निरपेक्षता हमारा आधारभूत तत्व है पर हम ऐतिहासिक सत्य को भी झुठला नहीं सकते  

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