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कोलकाता हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति सीएस कर्णन को सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने अवमानना का नोटिस देकर लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण संस्था में अनुशासन कायम करने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है
- इस कदम से जातिगत विवाद उठने का खतरा है। न्यायमूर्ति कर्णन जब मद्रास हाईकोर्ट में थे तो उनकी अपने मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजय कौल से ठनी रहती थी।
- कर्णन ने अवमानना की सुनवाई शुरू करने के साथ कौल को सुप्रीम कोर्ट में भेजे जाने पर स्थगनादेश दिए जाने तक का प्रयास किया।
- न्यायमूर्ति कर्णन अपने न्यायमूर्ति कौल पर न सिर्फ काम में हस्तक्षेप का आरोप लगाते रहे हैं बल्कि यह भी कहते रहे हैं कि वे उन पर दलित होने के नाते जातिगत टिप्पणियां करते हैं।
भ्रष्टाचार का क्या यह नया मामला है ?
हमारी उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जातिगत गुटबाजी के आरोप नए नहीं हैं । उन्हें या तो दबा दिया जाता रहा है या फिर किसी तरह से किनारे करके निपटा लिया जाता रहा है। इससे पहले कर्नाटक हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पीडी दिनकरन ने भी दलित होने के नाते उपेक्षा का आरोप लगाया था। तब उनका तबादला सिक्किम हाईकोर्ट में कर दिया गया था और जब तक उनके खिलाफ राज्यसभा से महाभियोग की कार्रवाई शुरू हो तब तक उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। इससे पहले 1993 में न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया था, जो कांग्रेस सदस्यों की अनुपस्थिति के कारण गिर गया था।
स्वतंत्रता के तुरंत बाद का समय
देश के आज़ाद होते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से खटपट हो गई थी तब स्थिति को पटेल ने संभाला था। न्यायपालिका अगर खुद को अनुशासित नहीं करती है तो वह अपनी प्रतिष्ठा खोती है और अगर वह कार्रवाई करती है तो एक जातिगत पूर्वग्रह का आरोप झेले बिना रह नहीं सकती। यह आरोप एक हद तक न्यायपालिका के भ्रष्टाचार और कार्यकुशलता पर सवाल उठा रही कार्यपालिका को अनुकूल भी लगेगा।
विवेक की दरकार
इससे उच्च न्यायपालिका में जाति और लिंग के आधार पर प्रतिनिधित्व का सवाल उठेगा साथ ही वह संवैधानिक सवाल तो अपनी जगह है ही कि अगर न्यायमूर्ति सीएस कर्णन अदालती अवमानना के दोषी पाए गए तो उनके साथ क्या बर्ताव किया जाएगा? इस नाजुक स्थिति में उच्चस्तरीय न्यायिक विवेक की दरकार है, क्योंकि अदालत को मुजरिम पर नहीं अपने जज पर ही फैसला लेना है।