मृत्युदंड क्यों खत्म होना चहिए (Why to end capital punishment)

सजा की संकल्पना का  उद्देश्य 

सभ्य समाज में सजा की संकल्पना अपराधियों को सुधारने के लिए की गई है, उन्हें मौत की नींद सुलाने के लिए नहीं। इस संदर्भ में फांसी की सजा वह उद्देश्य पूरा नहीं करती, जिसके लिए इस सजा का प्रावधान किया गया है।

मृत्युदंड का भारत में इतिहास

  • मृत्युदंड का प्रावधान भारतीय दंड संहिता में साल 1861 में किया गया था।
  • 1931 में बिहार विधानमंडल में एक विधायक ने इसकी समाप्ति को लेकर विधेयक पेश करने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो सके
  • आजादी के बाद जब केंद्र सरकार ने राज्यों से इस मामले में अपनी राय जाहिर करने को कहा, तब उनमें से ज्यादातर राज्य सरकारों ने इस सजा का पक्ष लिया। इन्हीं सब कारणों से विधि आयोग ने 1967 में अपनी 35वीं रिपोर्ट में मौत की सजा को बरकरार रखा, और माना कि यह अपराध को हतोत्साहित करने में कारगर होगा

मृत्युदंड अन्य देशों में

भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, चीन और अरब देशों के साथ दुनिया के उन चुनिंदा बावन देशों में शामिल है, जिसने अभी तक मृत्युदंड के प्रावधान को समाप्त नहीं किया है। जबकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्राप्त 192 देशों में से 140 ने अपने यहां से मृत्युदंड का प्रावधान हटा दिया है। यूरोपीय संघ ने तो अपनी सदस्यता के लिए मृत्युदंड का न होना एक अनिवार्य शर्त बना दी है

 

मृत्युदंड का विरोध क्यों

  • निचली अदालतें बहुत से मामलों में मृत्युदंड की सजा सुना देती हैं, लेकिन ऊपरी अदालतों में सुनवाई के दौरान पता चलता है कि इतनी बड़ी सजा की जरूरत ही नहीं थी
  • अमेरिका में एक स्टडी हुई थी, जिसके नतीजे भी कम चौंकाने वाले नहीं थे। उस अध्ययन में तो फांसी के बाद कुछ मामलों के गलत होने के पता चला था। यानी फांसी के तख्ते पर झूलने के बाद कुछ लोगों को बेगुनाह पाया गया था
  • ऐसे कोई ठोस आंकड़े नहीं हैं, जो यह साबित करते हों कि फांसी की सजा से वाकई अपराध के खिलाफ माहौल बनता है। 
  • मृत्युदंड की वकालत  डेटरेंट के मानक (हतोत्साहित करने वाला काम) पर  की जाती है पर हमें यह वाकई सोचना पड़ेगा क्या मृत्युदंड  इस पर खरा उतरता है। भारत के त्रवणकोर रियासत में भी मौत की सजा का प्रावधान नहीं था। वहां1949 में यानी भारत में उसके विलय से एक साल पहले 945 कत्ल के मामले सामने आए थे। मगर जब वहां मृत्युदंड की सजा प्रभावी हुई, तो विलय के एक साल बाद वहां 950 लोगों को मृत्युदंड की सजा मिली। लिहाजा यह कहना गलत नहीं कि मृत्युदंड कभी भी हतोत्साहित करने वाली सजा नहीं है।
  • हमें समझना होगा कि भारत एक सभ्य समाज है, और कोई भी सभ्य समाज जैसे को तैसा या बदला लेने की मानसिकता के तहत व्यवहार नहीं करता, फिर चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो।
  • इसका आशय यह नहीं की अगर कोई हत्या का दोषी है, उसे समाज में खुला छोड़ दिया जाए। अगर कोई व्यक्ति समाज के लिए खतरा है, तो उसे निश्चय ही सजा मिलनी चाहिए। मगर फांसी देने से बेहतर है कि उसे पूरी उम्र जेल में रखा जाए। आजीवन कारावास की सजा तो मौत से कहीं ज्यादा कष्टदायक होती है।मौत की सजा खत्म कर देने के फायदे कम नहीं हैं।
  • अधिकार का दर्शन कहता है कि व्यक्ति को जीवन का अधिकार बिना किसी शर्त के सार्वभौमिक है, इसलिए उस पर किसी भी तरह की पाबंदी नहीं लगनी चाहिए। जीवन किसी भी प्राणी को प्रकृति का दिया एक अनमोल उपहार है। ऐसे में नैतिक सवाल है कि अगर मनुष्य जीवन दे नहीं सकता तो उसे जीवन लेने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए। अधिकार का दर्शन आगे जोड़ता है कि आत्मरक्षा ही एकमात्र ऐसा बिंदु है, जिसकी सूरत में एक प्राणी दूसरे प्राणी की जान ले सकता है। यानी मृत्युदंड राज्य की तरफ से दी जाने वाली सजा है, जोकि आत्मरक्षा की श्रेणी में नहीं आती, बल्कि एक गलती को सुधारने के लिए दी जाने वाली सजा है। क्या एक गलती को दूसरी गलती करके सुधारा जा सकता है?
  • न्याय दर्शन और मृत्युदंडन्याय प्रणाली मुख्यत: तीन मूल सिद्धांतों पर कार्य करती है। पहला, कोई भी व्यक्ति अपने मामले में खुद न्यायाधीश नहीं हो सकता है। यानी फैसला हमेशा तीसरा व्यक्ति सुनाएगा, जिसको आदर्श रूप से निष्पक्ष माना जाता है। दूसरा, हर व्यक्ति को अपने बचाव का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए। यानी अगर किसी व्यक्ति को वकील नहीं मिलता है तो न्यायालय उसे वकील भी उपलब्ध कराएगा या उसे अपना बचाव खुद करने का मौका देगा। तीसरा, व्यक्ति को देश की उच्चतम अदालत तक अपील का मौका होना चाहिए।

न्याय का तीसरा सिद्धांत बताता है कि दरअसल, कोई भी निर्णय अपने आप में अंतिम नहीं होता, क्योंकि कानून चाहे कितना ही व्याख्यायित क्यों न हो, वह हमेशा आगे और व्याख्या की गुंजाइश छोड़े रखता है? न्यायाधीश भी मनुष्य ही होते हैं, इसलिए उनकी अपनी सीमाएं होती हैं, यानी उनसे भी मानवीय भूल हो सकती है। इसलिए न्यायालयों को हमेशा अपने पूर्व निर्णयों की समीक्षा करते रहना चाहिए। न्याय के इसी दर्शन ने न्यायिक पुनर्व्याख्या के सिद्धांत को प्रतिस्थापित किया है। अगर तार्किक तौर पर देखें तो न्याय का यह सिद्धांत भी मृत्युदंड के खिलाफ खड़ा होता है। अगर किसी व्यक्ति को एक बार दोषी ठहरा कर फांसी के फंदे पर लटका दिया जाए और कुछ समय बाद अदालत को कुछ नए तथ्य हाथ लगें जिनसे यह साबित हो जाए कि उक्त व्यक्ति दोषी नहीं था, तो अदालत अपने पूर्व निर्णय को पलट नहीं सकती।

  • अमेरिका के मैसाचुसेट्स के अटॉर्नी-जनरल ने साल1997 में कहा था, ऐसा कोई विश्वसनीय सुबूत नहीं है, जो यह साबित करे कि मौत की सजा हत्या के मामलों को कम करने में सहायक है। मौत की सजा न होने से मैसाचुसेट्स में हत्या की दर राष्ट्रीय औसत से करीब आधी हो गई थी। यह प्रवृत्ति सिर्फ मैसाचुसेट्स में ही नहीं दिखती है, बल्कि यही हाल अमेरिका के कई राज्यों का है।
  • कनाडा  की स्टडी :  कनाडा में साल 1976 में इस सजा को निरस्त कर दिया गया था। उसके बाद वहां पर हत्या की घटनाओं में कमी आई। साल 2000 में कनाडा में हत्या के 542 मामले आए, जो 1998 से 16 कम थे और 1975 के मुकाबले, यानी मौत की सजा के उन्मूलन के ठीक एक वर्ष पहले 159 कम                              source: livehindustan. jansatta

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