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सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यौन प्रताड़ना का केंद्र बनते जा रहे अनाथालय के एक मामले में बच्चों की सुरक्षा को लेकर तमाम दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इसमें बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा, बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा, यौन प्रताड़ना से बच्चों की रक्षा और बाल अपराध में लिप्त बच्चों की देखरेख और सुरक्षा की बात है।
Direction of SC:
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मदन बी लोकुर और न्यायाधीश दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने ये दिशा-निर्देश जारी किए हैं। शीर्ष अदालत ने इसमें बच्चों की न्यूनतम देखरेख के मानक तय किए हैं, जो अनुदान मिल रहा है, उसका सही इस्तेमाल, सोशल ऑडिट भी है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जुवेनाइल जस्टिस कानून की धारा 2 (14) में भी बच्चे की देखरेख और सुरक्षा को पूर्ण परिभाषा न माना जाए। ये दिशा-निर्देश जारी किए:
Ø अभिव्यक्ति की परिभाषा के अनुसार बच्चे को जुवेनाइल जस्टिस कानून की धारा 2 (14) में देखरेख और सुरक्षा दी जाती है। यह सभी जरुरतमंद बच्चों को दी जानी चाहिए।
Ø बच्चों की सुरक्षा में लगे समस्त संस्थान अपना पंजीकरण इस साल 31 दिसंबर तक करा लें। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें इसे सुनिश्चित करें। इसमें बच्चों का समस्त डेटा शामिल हो और वैध हो। इस तरह की सूचना सभी संबंधित अधिकारियों के पास हो।
Ø जरूरतमंद बच्चों के पुनर्वास के लिए केंद्र, राज्य सरकारें और केंद्र शासित प्रदेशों को समस्त सरकारी योजनाओं का उपयोग करना चाहिए।
Ø राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिए हैं कि वे जुवेनाइल जस्टिस कानून की सही तरह से निगरानी के लिए एक निगरानी समिति बनाएं। निरीक्षण करने के बाद जरूरतमंद बच्चे किन अवस्थाओं में रह रहे हैं, उसकी रिपोर्ट तैयार करें कि किस तरह से संस्थाओं में रह रहे बच्चों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाया जा सके। इस तरह की निगरानी समितियां 31 जुलाई के पहले बन जानी चाहिए। साथ ही बच्चों की देखरेख करने वाली सभी संस्थाओं को संबंधित राज्य या केंद्र शासित प्रदेश को अपनी इस तरह की रिपोर्ट 31 दिसंबर के पहले सौंपना है।
Ø हर संस्थान में प्रत्येक बच्चे की देखरेख का एक प्लान होना चाहिए। राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों की देखरेख में लगी प्रत्येक संस्था इस तरह का प्लान बनाएं।
Ø सोशल ऑडिट्स के महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता। बच्चों की देखरेख में लगी संस्थाएं व जुवेनाइल जस्टिस कानून के दायरे में आने वाली अन्य संस्थाओं की पारदर्शिता और जवाबदेही को आंकने का यही सही तरीका है।
Ø प्रत्येक हाईकोर्ट में जुवेनाइल जस्टिस कमेटी इससे संबंधित कानून के सही तरह से अमल को सुनिश्चित कर रही है। इसमें कोई शक नहीं कि प्रत्येक समिति की सहायता के लिए एक सचिवालय की जरूरत है। इसलिए इन समितियों से आग्रह है कि वे अपना सचिवालय स्वयं तैयार कर लें। साथ ही सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिए जाते हैं कि वे इन समितियों की पूरी मदद करें।
दरअसल, इस मामले का संज्ञान स्वयं शीर्ष अदालत ने लिया था। तमिलनाडु के महाबलिपुरम में एक अनाथालय में बच्चों के प्रताड़ना संबंधी रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इसे लेकर काफी रोष था। यह अनाथालय एक एनजीओ द्वारा चलाया जाता है। इसमें पाया गया कि अनाथालय के बच्चों को पर्यटकों के आगे पेश किया जाता है। इसमें भारतीय और विदेशी पर्यटक दोनों शामिल हैं। बच्चों को भेजे जाने का पैसा लिया जाता है। इसकी दरें टेलीफोन पर या अनाथालय में मीटिंग कर तय कर ली जाती थी। तब शिखर अदालत ने इस मुद्दे को गंभीर मानते हुए लिया और पिछले कई वर्षों में इस संबंध में बच्चों के अधिकारों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए गए।
फैक्ट - बाल अधिकारों को चार भागों में बांटा जा सकता है-1. जीवन जीने का अधिकार, 2. संरक्षण का अधिकार, 3. सहभागिता का अधिकार, 4. विकास का अधिकार।