बाजार भरोसे खेती से आय दोगुनी नहीं होगी

#Editorial_Bhaskar

जहां किसान की आय दोगुनी करने पर होने वाले सेमिनार व सम्मेलनों की संख्या पिछले कुछ माह में दोगुनी हो गई है, वहीं किसान उत्तरोत्तर नुकसान के दुश्चक्र में फंसता चला जा रहा है। दो साल पहले आए लगातार दो सूखे, नोटबंदी से घटी आय, अनुमान के मुताबिक आमदनी में खासतौर पर सब्जी उगाने वाले किसानों की आय में 50 से 70 फीसदी कमी आई है।

किसानो की आय बढाने की दलीले

ये दलीलें अपरिहार्य रूप से जिन सिद्धांतों के आसपास घूमती हैं-

  • फसलों की उत्पादकता बढ़ाना
  • सिंचाई का विस्तार करना
  • फसल बीमा और
  •  इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चरल मार्केट प्लेटफॉर्म (ई-नाम) को मजबूत बनाना।

न्यूनतम आय और किसान

  • भारत में सिर्फ 1.3 फीसदी आबादी वेतन पाती है, जिसमें निजी क्षेत्र भी शामिल है। इसके विपरीत 52 फीसदी से अधिक आबादी यानी मोटेतौर पर 60 करोड़ लोग कृषि पर आधारित हैं। इस क्षेत्र में काम करने वालों को भारतीय श्रम सम्मलेन 1957 की सिफारिशों के मुताबिक न्यूनतम मजदूरी मिलती है।
  • उस हिसाब से न्यूनतम मजदूरी न्यूनतम मानवीय जरूरतों पर आधारित होनी चाहिए, जिसके लिए कुछ मानदंड तय किए गए हैं : एक, आदर्श कार्यशील परिवार में कमाने वाले एक व्यक्ति पर तीन व्यक्तियों की निर्भरता। इसमें महिला, बच्चों व किशोरों की कमाई को ख्याल में नहीं लिया गया है। दो, मध्यम दर्जे की क्रियाशीलता वाले औसत वयस्क के लिए 2,700 कैलोरी कुल दैनिक आहार। तीन, प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति 18 यार्ड कपड़ा। चार लोगों के औसत खेतिहर परिवार के लिए 72 यार्ड कपड़े की जरूरत है। चार, सब्सिडी प्राप्त औद्योगिक आवास योजना के तहत कम आमदनी वाले समूहों को उपलब्ध कराए जाने वाले न्यूनतम क्षेत्र के मुताबिक आवास किराया। पांच, ईंधन, रोशनी तथा अन्य मदों पर खर्च कुल न्यूनतम आय का 20 फीसदी।
  • बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1991 में जारी आदेश में न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिए छह मानदंड तय किए गए :
  • बच्चों की शिक्षा
  •  चिकित्सा जरूरतें
  •  त्योहार
  • समारोह सहित न्यूनतम मनोरंजन
  •  विवाह तथा वृद्धावस्था के लिए प्रावधान, जो मजदूरी का 20 फीसदी होना चाहिए।
  • आदेश में महंगाई भत्ते को शामिल करने को भी कहा गया है।

दोहरे मापदंड

इन मानकों से सम्मानजनक जीवन के लिए जरूरी न्यूनतम मासिक आमदनी तय होती है। अजीब बात यह है कि इन्हीं मानकों पर अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और योजनाकारों को निश्चित आय होती है लेकिन, जब वे आमदनी दोगुनी करने की चर्चा में इनकी पूरी तरह उपेक्षा कर देते हैं तो दोहरे मानदंडों की गंध आती है। अपने वेतन को तो मानकों का संरक्षण देना, जबकि बहुसंख्यक आबादी को बाजार की दुश्वारियों के हवाले कर देना। छत्तीसगढ़ में बम्पर फसल के बावजूद हाल ही में टनों टमाटर सड़कों पर फेंकने वाले किसानों से पूछिए कि बाजार की तानाशाही का क्या मतलब होता है। कर्नाटक व उत्तरप्रदेश में गन्ना किसानों के उन परिवारों से बाजार का मतलब पूछिए, जिन्होंने महीनों तक गन्ने की बकाया राशि के भुगतान का इंतजार करते हुए आखिरकार खुदकुशी की है।

पृथक आमदनी आयोग

किसानों के लिए पृथक आमदनी आयोग होना चाहिए  ताकि वह किसानों को हर माह निश्चित आमदनी सुनिश्चित कर सके। यदि उत्पादकता खेती के संकट का कारण होती तो पंजाब के किसानों द्वारा बड़ी संख्या में खुदकुशी का कोई कारण नहीं है। प्रति हैक्टेयर 45 क्विंटल गेहूं और 60 क्विंटल चावल के साथ पंजाब वैश्विक चार्ट में शीर्ष पर है। 98 फीसदी सुनिश्चित सिंचाई के बावजूद शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब किसान वहां आत्महत्या नहीं करता।

MSP not the only solution

National farmers commission की रिपोर्ट को  लागू करना चाहिए , जिसमें किसान को लागत पर 50 फीसदी मुनाफा देने की सिफारिश है। इसमें यह ध्यान नहीं रखा गया है कि केवल 6 फीसदी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का फायदा मिलता है और शेष 94 फीसदी को सहायता देने का कोई तरीका नहीं है। एमएसपी निश्चित ही किसानों को सुनिश्चत आय देने का एक तरीका होगा, लेकिन हमें शेष किसानों को निश्चित आय देने का तरीका खोजना होगा। जब निचले स्तर के कर्मचारी के लिए 18 हजार रुपए की न्यूनतम मासिक आय और गैर-कृषि मजदूर के लिए 351 रुपए की न्यूनतम दैनिक मजदूरी तय की गई है तो अन्नदाता को कर्ज के दुश्चक्र में फंसाने वाली आय के साथ नहीं छोड़ा जा सकता।

निष्कर्ष

अनुमानों के मुताबिक किसान सस्ता अनाज मुहैया कराने की बड़ी कीमत चुकाता है, जो प्रतिवर्ष 12 लाख करोड़ रुपए है। यदि किसान की जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण की सेवाएं ध्यान में लें उसे प्रति हैक्टेयर न्यूनतम 14 हजार रुपए का भुगतान जायज है। यह तो सीमित आकलन है और किसान की आय दोगुनी करने की चर्चा में इसे आधार बनाना चाहिए। समय आ गया है कि किसान की आमदनी दोगुनी करने के लिए उत्पादकता, अनुबंध पर खेती और मार्केटिंग के निजीकरण के परे सोचना होगा। दुर्भाग्य से अर्थशास्त्रियों ने खेती में सार्वजनिक व निजी निवेश को आमदनी समझ लिया है।

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