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Background:
उच्चतम न्यायालय ने 1997 में सुनाए अपने फैसले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ की परिभाषा तय करने और इससे निपटने के दिशानिर्देश तय करने के साथ ही स्त्री-पुरुष समानता के लिए नया आधार तैयार किया था।
विशाखा और उसके बाद
सवाल यह है कि इस फैसले के 20 साल बीतने के बाद इसकी विरासत का आकलन किस तरह किया जाएगा? हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि जनहित याचिका दायर करने वाले गैरसरकारी संगठन के नाम पर चर्चित विशाखा केस में आए फैसले ने विभिन्न कारणों से महिला अधिकारों को सशक्त तरीके से आगे बढ़ाने का काम किया है। यह मामला राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाली एक महिला कार्यकर्ता के साथ हुए सामूहिक बलात्कार से जुड़ा था। उसने बाल विवाह रोकने की कोशिश की थी जिससे गुस्साए अगड़ी जातियों के लोगों ने उसके साथ दुष्कर्म कर दिया था। यह मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा था।
विशाखा केस और न्यायालय के विचार
- कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ से संबंधित निर्देश जारी करने के साथ ही कहा था कि समाज के भीतर कितनी गहराई तक स्त्री जाति के प्रति विद्वेष है, भारत का औसत कार्यस्थल बुरी तरह से स्त्री-विरोधी है। विशाखा केस में कार्यस्थल पर होने वाले उत्पीडऩ को इस तरह से परिभाषित किया गया था कि उसमें भारतीय दंड संहिता की तीन धाराओं का जिक्र था। खास बात यह है कि सहकर्मियों के लंपट व्यवहार को भी उत्पीडऩ के इस दायरे में शामिल किया गया था। अब उत्पीडऩ का मतलब केवल शारीरिक संपर्क तक ही सीमित नहीं रहा था।
- कामकाजी संगठनों के लिए यह स्पष्ट निर्देश था कि महिलाओं के उत्पीडऩ की शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई के लिए उन्हें एक समिति बनानी होगी। उस समिति की प्रमुख एक महिला ही होगी और कम-से-कम आधे सदस्यों का भी महिला होना अनिवार्य कर दिया गया। इस फैसले की पथप्रदर्शक प्रवृत्ति के चलते मीडिया ने इसे प्रमुखता से जगह दी थी लेकिन उसके बाद तमाम प्रावधानों एवं दिशानिर्देशों का छोटे-बड़े संगठनों ने उल्लंघन करना शुरू कर दिया।
कार्यान्वयन
इन दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने पर किसी तरह के जुर्माने का प्रावधान नहीं होने से यह मुद्दा कभी भी भारत के कार्यस्थलों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं बन पाया। विडंबना है कि स्त्री-पुरुष भेदभाव के आरोप बढऩे का भी इस सुस्त प्रतिक्रिया में कुछ योगदान रहा है। दरअसल वरिष्ठ पदों पर महिलाओं की सीमित मौजूदगी के चलते उत्पीडऩ की शिकायतों पर भरोसेमंद कार्रवाई का अभाव रहा है। भारत के पुरुष वर्चस्व वाले कारोबारी जगत में कार्यस्थलों पर महिला कर्मचारियों के यौन उत्पीडऩ का मसला कोई मुद्दा ही नहीं रहा है। तमाम उद्योग मंडलों के प्रमुख निवेशकों के समक्ष भारत को सर्वाधिक तेजी से विकास कर रहे देश के तौर पर पेश करते हैं लेकिन उन्होंने अपने सदस्य संगठनों को महिलाओं के लिए हालात अनुकूल बनाने के बारे में प्रेरित नहीं किया है। इन्फोसिस ने वर्ष 2002 में यौन उत्पीडऩ के आरोपों पर अपने शीर्ष अधिकारी फणीश मूर्ति को हटा दिया था लेकिन वह महज अपवाद बनकर ही रह गया।
संसद की जिम्मेदारी
संसद को भी इस मुद्दे पर अपना रुख साफ करने में 16 साल का लंबा वक्त लग गया। वर्ष 2012 के अंतिम दिनों में एक पैरा-मेडिकल छात्रा की सामूहिक बलात्कार के बाद नृशंस तरीके से हत्या कर दिए जाने के मामले को लेकर राजधानी दिल्ली समेत देश भर में हुए व्यापक प्रदर्शनों के बाद संसद ने बेहद तेज गति से इससे संबंधित कानून को पारित किया। उसमें बलात्कार से संबंधित प्रावधानों को सख्त करने के साथ ही कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ को भी काफी विस्तार से परिभाषित किया गया है। कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीडऩ (निषेध, निवारक एवं निपटान) अधिनियम, 2013 ने विशाखा दिशानिर्देशों की जगह ले ली। खास बात यह है कि विशाखा केस पर फैसला सुनाने वाले न्यायमूर्ति वर्मा ने इस कानून की भी रूपरेखा तय करने में अहम भूमिका निभाई थी।
इस अधिनियम ने कार्यस्थल पर उत्पीडऩ के दायरे को व्यापक करने के साथ ही शिकायत सुनवाई समिति की शक्तियों को भी सुस्पष्ट किया है और एक निश्चित आकार वाले संगठनों को कार्यस्थल पर लैंगिक-संवेदनशीलता सुनिश्चित करने को कहा है। इसमें संगठनों को अपने सालाना रिपोर्ट में उत्पीडऩ के मामलों का भी विवरण देने को कहा गया है। इस कानून के वजूद में आने के बाद महिला कर्मचारियों का भरोसा बढ़ा है और वे खुलकर अपने साथ हो रही ज्यादती की शिकायत दर्ज कराने लगी हैं। वित्त वर्ष 2015-16 में निफ्टी सूचकांक में शामिल शीर्ष 50 कंपनियों में यौन उत्पीडऩ के मामलों में 26 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने 2014 की तुलना में 2015 के दौरान कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ के मामलों में 50 फीसदी बढ़ोतरी होने की बात कही है।
निष्कर्ष
बावजूद इसके बलात्कार की तरह यौन उत्पीडऩ के मामलों की भी रिपोर्ट वास्तविक संख्या से काफी कम होती है। इंडियन बार एसोसिएशन का सर्वे में कहा गया है कि करीब 70 फीसदी महिलाएं अपने वरिष्ठ अधिकारियों की प्रताडऩा के डर से उत्पीडऩ की शिकायत ही नहीं करती हैं। शिकायतकर्ता महिला को संगठन के भीतर अलग-थलग कर देने से भी पीडि़त महिलाएं सामने आने से हिचकती हैं। इन कानून को ठीक से लागू नहीं करने पर केवल 50,000 रुपये का जुर्माना लगाने का प्रावधान है जो काफी नरम है। कई आईटी और मीडिया कंपनियों में महिला कर्मचारियों की अच्छी संख्या के बावजूद उनके यहां शिकायत समितियां तक नहीं बनी हैं। इतना जरूर है कि विशाखा केस ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ के जिस मसले को आवाज दी थी उसे अब मुख्यधारा के विमर्श में जगह मिल चुकी है। टेरी, तहलका, इन्फोसिस और इंडियन होटल्स में उठे विवाद इसकी बानगी भी पेश करते हैं। भारत के सुस्त सामाजिक विकास को देखते हुए यह उपलब्धि भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।